दूसरा अध्याय ४८५ है कि पहले इन्द्रियोके रास्ते कभी वे भीतर पाई थी और अपना असर छोड गई थी । बस उसी असरके आधारपर मन उनका स्वरूप तैयार कर लेता है । इसीको खयाल, स्मरण या ध्यान कहते है, चिन्तन कहते है। इन श्लोकोमे पहली बात यही कही गई है। उसका नतीजा यह होता है कि उन चीजोसे मनीराम लिपट जाते है, उनमे आसक्त हो जाते है, फिदा हो जाते है । यह ठीक है कि यह आसक्ति योही नही हो जाती। कितनी ही चीजे रोज दिमागके सामने गुजरा करती है। मगर सबोके साथ सग या आसक्ति कहाँ देखते है ? हॉ, जो चीजे बार-बार सामने आ जायँ, जिनका बार-बार खयाल हो उनमे आसक्ति होती है। या ऐसा भी होता है कि यदि चीजमे कोई विल- क्षणता हो तो पहली बार सामने आनेपर ही मनीराम उसपर लटू हो जाते है । यह बात वस्तुकी अपनी विशेषता और सामने आनेकी परि- स्थितिपर ही अवलम्बित है। यही है दुनियाका तरीका । यही दूसरी बात यहाँ कही गई है। आसक्ति होनेपर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा, आकाक्षा या तमन्ना होती ही है। उसीके लिये रास्ता साफ करना आसक्तिका काम है। इच्छाको ही काम भी कहते है। इसका दर्जा तीसरा है। यह असभव है कि इच्छा होई न और आसक्ति योही रह जाये। कामके बाद क्रोधका दर्जा आता है-उसीका चौथा नम्बर है। जिसे काम या इच्छा न हो उसे क्रोधसे क्या ताल्लुक ? उसमे तो क्रोधका दर्शन भी न होगा। इच्छासे क्रोध योही नही होता। किन्तु उसके मौके आते रहते है। इच्छित वस्तु न प्राप्त हुई, उसकी प्राप्तिमे देर हुई या बीचमे कोई जरा भी अडगा आ गया, तो चट क्रोध उमड पडता है । इच्छा जितनी ही तेज होगी, क्रोध भी उतना ही तेज होगा और शीघ्र होगा भी। क्योकि तब तो जरा भी बाधा या विलम्ब बर्दाश्त हो सकेगी नहीं। यह
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