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दूसरा अध्याय ४७५ क्या है ? वह किस तरह बोलता, कैसे बैठता और कैसे चलता है ? ५४॥ यहाँ “समाधिस्थ" शब्दका वही अर्थ है जो "योगस्थ कुरु कर्माणि"मे 'योगस्थ का है। यदि गौरसे देखा जाय, और हम पहले विस्तारके साथ लिख भी चुके है, तो इस योगीकी भी वैसी ही समाधि होती है जैसी पतजलिके योगीकी । हाँ, यह प्राणायाम भले ही नही करे। फिर भी कर्मसे बालभर भी इधर-उधर इसकी दृष्टि, इसकी बुद्धि जाने पाती ही नही। वही जम जाती है, रम जाती है। इसीलिये यह समाधिस्थ और योगस्थ कहा जाता है। श्रीभगवानुवाच । प्रजहाति यदा कामान्सन्पिार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्सना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥ श्रीभगवानने कहा, हे पार्थ, जब मनके भीतर घुसी सभी कामनारोको जडमूलसे खत्म कर देता और आत्मामे ही अपने आपमे ही-अपनेसे ही-खुदबखुद सन्तुष्ट रहता है तभी उसे स्थितप्रज्ञ या अचलबुद्धिवाला कहते है ।५५॥ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥५६॥ दु खोसे जिसका मन उद्विग्न न हो सके, सुखो (की प्राप्ति) के लिये जो परीशान न हो और राग, भय एव द्वेष-क्रोध-ये तीनो ही-जिसके बीत गये या खत्म हो चुके हो वही मननशील-मुनि-स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।५६। इन दो श्लोकोमें योगी या स्थितप्रज्ञका लक्षण बताया गया है। इस प्रकार अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर हो जाता है। बादके ५७वेमे