४७४ गीता-हृदय लोग कैसे जानें कि कौन योगी है ? यह नहीं कि दूसरोंके जाननेकी जरूरत ही न हो । यदि दूसरे न जाने तो उन्हे उपदेशक कैसे मिलेगा ? क्योकि जो खुद योगी न हो वह तो उपदेश कर सकता नही । फलत यदि हमें योगका रहस्य जानना है तो योगीके पास ही जाना होगा। मगर विना पहचाने जायेंगे कैसे ? इसीलिये पहचानकी जरूरत है, और इसके लिये बाहरी लक्षण, जो उठने-बैठने, बोलने आदिसे ही जाना जा सके, मालूम होना चाहिये। इसके सिवाय जो लक्षण, जो पहचान बताई गई है वह बहुत ही सक्षिप्त है। उसमे एक ही बात है, या ज्यादेसे ज्यादे दो बातें है। मगर ज्यादा बातें पहचानके रूपमे मालूम हो जाये तो आसानी हो। इन ज्यादा लक्षणो और बाहरी पहचानोंसे यह भी लाभ होगा कि जो खुद योगी होगा वह भी अपने आपको समय-समयपर तौलता रहेगा। आखिर योगकी पूर्णता एकाएक तो हो जाती नहीं। इसमें तो समय लगता ही है। इस दानमें त्रुटियो एव कमजोरियोका पता लगा-लगाके उन्हें दूर करना जरूरी हो जाता है। इन्ही त्रुटियो और कमजोरियोका आसानीसे पता लगता है बाहरी लक्षणोसे ही। क्योंकि अपनी कमजोरी अपने आपको जल्द मालूम न होनेपर भी दूसरे चटपट जान जाते है। फलत उनकी बातोसे सजग होके योगी खुद अपनी मनोवृत्तिपर कडी नजर रखता और उसे ठीक करता है। यही सब खयाल करके- अर्जुन उवाच । स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ! स्थितधी किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥५४॥ अर्जुनने पूछा-हे केशव, जिसकी बुद्धि स्थिर तथा समाधिमे अचल हो गई है--जो योगी बन चुका है-उसकी परिभाषा-लक्षण-
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