दूसरा अध्याय ४७३ है। निश्चलको अचल कह देनेसे ही उसकी शान्ति एव स्थिरतामे स्था- यित्वका अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। निश्चलका अक्षरार्थ भी है चलनेसे बरी और अचलका अर्थ है जो कभी न चले । बरी तो थोडे समयके लिये भी रहा जा सकता है। समाधि शब्दका भी मनमाना अर्थ किया जाता है। अभीतक केवल दोई बार यह शब्द आया है। एक बार इस श्लोकमे । दूसरी बार इससे पूर्व "समाधौ न विधीयते” (४४) मे । हमने दोनो जगह एक ही अर्थ अन्त करण या दिमाग किया है। समाधिका अर्थ है जिस दशामे या जहाँ मन स्थिर हो, बुद्धि स्थिर हो, और दिमाग या अन्त करण ही ऐसी चीज है जहाँसे मन या बुद्धिकी दौड बार-बार हुआ करती है। मगर ज्योही यह दौड रुकी कि वही वे दोनो गान्त हो जाते है । एकाग्रताकी दशामे यही होता है। इसीलिये हमने यही अर्थ मुनासिब समझा है । जहाँके है वही रुक गये, यही तो शान्ति, स्थिरता या निश्चलता है और यही निश्चयात्मकता भी है। क्योकि निश्चय न रहनेपर बीस चीजोमे उनकी दौड जारी ही रहती है। इतना कह देनेसे यह तो हो गया कि योगीकी पहचान मालूम हो गई। मगर इतनेसे ही तो काम चलता नही दीखता। पहले जब गोल- मटोल बात थी तो अर्जुन भी चुप्प थे । कृष्णने भी अपने ही मनसे शका उठाके जवाब दे दिया। मगर कर्मयोगीकी पहचान सुननेके बाद स्वभावत अर्जुनको नई जिज्ञासाये पैदा हुईं और उसे पूछना पडा । उसे यह सुनते ही एकाएक खयाल आया कि जो कुछ भी पहचान योगीकी बताई गई है वह तो भीतरी है, बाहरी नहीं । बुद्धिकी स्थिरता या पढने-लिखनेसे वैराग्य यह तो मनोवृत्ति ही है न ? फिर यह बाहर कैसे हो और दूसरोकी पहचानमे कैसे आये ? अपना काम तो शायद इससे चल जाय। क्योकि हर आदमी अपनी मनोवृत्तिको बखूबी समझ सकता है। मगर बाहरके
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