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दूसरा अध्याय ४७१ यदा ते मोहकलिलं बुद्धिय॑तितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥५२॥ जब तेरी अक्ल इस बुद्धिभ्रमके कीचडसे पार हो जायगी (तो) उस समय तुझे सभी बातोसे विराग हो जायगा, (फिर चाहे वह) जानी- सुनी हो या जानने योग्य हो ।५२॥ श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥ (इस प्रकार वेदशास्त्रोकी सभी बातोसे मनके विरागी हो जानेपर) उनके करते घपले तथा दुबिधेमे पडी तेरी अक्ल जब अन्त करण या दिमागके भीतर ही रुकके वही सदाके लिये जम जायगी तभी (समझना कि) बुद्धिरूपी योग प्राप्त हो गया ।५३। इन दोनो श्लोकोमें जो बाते कही गई है उनका जरासा स्पष्टीकरण जरूरी है। यह तो पहले ही कर्तव्याकर्त्तव्यके विवेचनमे बता चुके है कि वेदशास्त्रोके अनेक वचनो और ऋषि-मुनियोके बहुतेरे उपदेशोके करते लोगोकी अक्ल कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निश्चय कर पानेके बदले और भी दुबिधेमे पड जाती है। उसकी हालत ठीक वही हो जाती है जैसी अँधेरी गुफामें पडी कोई चीज अन्दाजसे ही टटोलनेवालेकी । वह कोई निश्चय कर पाता नही और भीतर ही भीतर ऊब जाता है। निश्चयकी जितनी ज्यादा कोशिश वह करता है उतना ही ज्यादा दुबिधा और पचडा बढ जाता है। ठीक "ज्यो-ज्यो भीग कामरी त्यो त्यो भारी होय" या "मर्ज बढता गया ज्योज्यो दवा की"की हालत हो जाती है। मगर करे क्या ? वेदशास्त्रोको छोडते भी तो नही बनता । जितना पढ-सुन चुका होता है उसका भी बार-बार खोद-विनोद करता ही जाता है। नये-नये जो भी वचन पढने-सुनने योग्य होते है उन्हे भी पढता जाता है समझदारीकी यही तो दिक्कत है। यदि अपढ-अजान होता तो यह कुछ