दूसरा अध्याय ४६७ जा सकता नही । ऐसी वात अब तक तो पाई गई है नही । ऐसी दशामे गीता जैसा सर्वप्रिय ग्रन्थ यह बात कहे, सो भी स्वय मर्यादापुरुषोत्तम श्रीकृष्णके ही मुखोसे, यह वात ठीक जंचती नही । इसीलिये तो इससे पहलेके त्रैगुण्यविषया" श्लोकमे जहाँ मुनासिब था यह कह देना कि तुम तीनो. वेदोकी पर्वा छोडो-“निस्त्रिवेदो भवार्जुन" या "निस्त्रविद्यो भवार्जुन", वहाँ यही कहा कि तुम त्रैगुण्य-रहित या ससारके पदार्थोसे अलग हो जानो-“निस्वैगुण्यो भवार्जुन"। यदि श्लोकको गौरसे पढा जाय और उसका आशय देखा जाय तो वह यही है कि वेदोके इस जाल से बच जानो। मगर ऐसा न कहके यही बात धुमाके कही कि सासारिक बातोकी लालसा छोड़ दो। इससे भी अर्थात् वैदिक कर्मकाड छट ही जायेंगे। फिर भी स्पृष्टत ऐसा नही कहा । ठीक इसी तरह यहाँ भी कह दिया है कि वेदोका काम आत्मज्ञानसे भी चल जाता है। मगर उस सीधे अर्थमे तो कुछ न कुछ छीटा वेदो पर आई जाता है यदि गौरसे देखा जाय। इसीसे शकरने वह अर्थ नही किया है। हमने भी उन्हीका अनुसरण किया है। एक बात और भी है। यदि “सर्वत सप्लुतोदके" शब्दोका सर्वत्र जल-प्लावन अर्थ होता, तो “सप्लुतोदके"की जगह "सप्लुते दके” लिखना कही अच्छा होता। दक और उदक शब्दोका अर्थ एक ही है पानी । मगर उदक शब्द रखने पर सप्लुतके साथ उसका समास करना पडता है, जिसकी जरूरत उन लोगोके अर्थमे कतई रह जाती नही। वह तो तब होती है जब समुद्र अर्थ करना हो। इसीलिये बहुब्रीहि समास करना पडता है । 'सप्लुतोदके' लिखने पर समासकी गुजाइश रह जानेसे लोग वैसा कर डालते है। मगर यदि वैसा अर्थ इष्ट न होता तो साफ-साफ 'सप्लुते दके' लिख देते । फिर तो झमेला ही मिट जाता । इससे भी पता चलता है कि ऐसा अभिप्राय हई नही । शान्तिपर्वके मोक्षधर्मके २४१वे अध्यायवाला “ये स्म बुद्धि परा प्राप्ता
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