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४६६ गीता-हृदय मुपजीवन्ति"से शुरूकरके समूचे लम्बे ३३वें मत्रमें लोक परलोकके सभी सुखो एव अानन्दोका तारतम्य दिखाते हुए आखिरमें आत्मानन्दको ही सव के ऊपर माना है। कहा है भी कि उसीके भीतर शेष सभी समा जाते है। अन्य उपनिषदोमे भी यही बात आती है। यहां इसीकी ओर इशारा है। इस श्लोकमें ब्राह्मण शब्दका अर्थ ब्राह्मण जाति न होके यात्मज्ञानी । ही है, यह बात पहले ही कृपण शब्दकी व्याख्याके सिलसिलेमें कही जा चुकी है। इसीलिये 'ब्राह्मणस्य'के आगे "विजानत" शब्द आया है जो विज्ञ या विद्वानका वाचक है। इस श्लोकका अर्थ करनेमे किसी किसीने उस अर्थ पर तानाजनी की है और उसे खीचतानवाला बताया है जो हमने किया है। ऐसे लोगोका कहना है कि "सर्वत सप्लुतोदके"का अर्थ समुद्र या समुद्र जैसा महान् जलाशय न करके वाढ या जल-प्लावन कर लेना ही ठीक है। इससे श्लोकका यह अर्थ हो जायगा कि जैसे जल-प्लावन होने पर जितना प्रयोजन ताल-तलैयाका रह जाता है, अर्थात् कुछ भी प्रयोजन रह जाता नही, वैसे ही आत्मज्ञानी विद्वानके लिये भी उतना ही प्रयोजन वेदोसे रह जाता है- अर्थात् कुछ भी नहीं रह जाता है। इस प्रकार प्रात्मज्ञानीके लिये वेदोकी निष्प्रयोजनताका प्रतिपादन खुले शब्दोमें वे लोग इस श्लोकमे मानते है । बेशक, इस अर्थ मे वैसी खीचतान नहीं है जैसी हमारे अर्थमे है । हाला कि, उनके अर्थमे भी द्रविड प्राणायाम जरूर है। क्योकि कुछ भी प्रयोजन नही रह जाता यह वात श्लोकके शब्दोसे सिद्ध न होके अर्थात् सिद्ध होती है। लेकिन ऐमा अर्थ मानने में एक वडी अडचन है । अमलमे साफ साफ वेदोको निष्प्रयोजन या वेकार कह देनेकी हिम्मत किसी भी सनातनी ग्रथ या महापुरुषको नहीं होती। वेदोका स्थान हिन्दू-समाजमे इतना ऊँचा है कि उनके बारेमे स्पष्ट निन्दासूचक शब्द बोला और लिखा