दूसरा अध्याय ४६५ योग-जोडना या प्राप्त करना और क्षेम-रक्षा करना--कहते है। वह इससे भी मुक्त हो जाता है। हमने यही लिखा भी है। शान्तिपर्वके ५२वे तथा १५८वें अध्यायोमे जो कुछ भीष्मको आशीर्वाद तथा अर्जुनको उपदेश दिया गया है वहाँ भी वारवार यह 'सत्त्वस्थ' पद आया है। "ज्ञानानि च समग्याणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ । नच ते क्वचिदा- सत्तिबुद्धे प्रादुर्भविष्यति ॥ सत्त्वस्थ च मनो नित्य तव भीष्म भविष्यति । रजस्तमोऽभ्या रहित घनर्मुक्तइवोडुराट् ५२।१७-१८), "ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च । निर्ममा निरहकारा सत्त्वस्था समदर्शिन ॥ लाभालाभौ सुखदु खे च तात प्रियाप्रिये मरण जीवित च । समानि येषा स्थिरविक्रमाणा बुभुत्सता सत्त्वपथे स्थितानाम् ॥ धर्मप्रियास्तान् सुमहानु- भावान्दान्तोऽप्रमत्तश्च सम→येथा (१५८॥३३-३५) । इन श्लोकोमे अक्षरश गीताके इस श्लोककी ही बात है। यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥ (जिस तरह) जितना काम छोटे बड़े जलाशयोसे निकलता है वह सभी केवल एक ही विस्तृत जलराशिवाले समुद्र या जलागयसे चल जाता है; (उसी तरह) वेदोसे जितना काम चलता है आत्मज्ञानी विद्वानका वह सबका सब (योही) चल जाता है-पूरा हो जाता है । ।४६। इस श्लोकमे जो कुछ कहा गया है उसका निष्कर्ष यही है कि छोटे जलाशयका काम बडेसे, दोनोका उससे भी बडेसे और अन्तमे सबोका काम सबसे वडेसे-वडेसे बडेसे-चल जाता है। अत. उसके मिलने पर बाकियोकी पर्वा नहीं की जाती । आत्मज्ञान हो जाने पर सासारिक सुखो और भौतिक पदार्थोकी पर्वा नहीं रह जाती है। क्योकि आत्मा तो आनन्द सागर ही ठहरी। बृहदारण्यकके चौथे अध्यायके तृतीय ब्राह्मणके ३२वे मत्रके "एपोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रा-
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