दूसरा अध्याय ४६३ प्रतिपादक है। तुम इन वातोको छोडो, राग द्वेषादि द्वन्द्व जोडे- दो दो-से रहित हो, हमेशा सत्त्वगुणकी ही शरण लो, योग-क्षेमकी पर्वा छोड दो, मनको वशमे करो और आत्मतत्त्वमे रम जाओ ।४५॥ यहाँ कुछ बाते जान लेनेकी है । साधारणतया खयाल हो सकता है कि जव त्रैगुण्य शब्द यहाँ आया है जिसका अर्थ है तीनो गुणोसे बनाया त्रिगुणात्मक, तो यहाँ तीनो ही गुण बुरे बताये गये है। मगर सत्त्वगुण तो प्रकाशमय होनेसे ज्ञानवर्द्धक है । इसलिये उसे क्यो बुरा कहा ? इतना ही नही । आगे उत्तरार्द्धमे लिखते है कि वरावर सत्त्वगुणकी शरण लो-“न्त्यिसत्त्वस्थ"। यदि कुरा होता तो सत्त्वकी शरण जाने की बात कहते क्यो ? तव तो परस्पर विरोध हो जाता न ? इसलिये सत्त्वको बुरा कहना ठीक नही । हाँ, रज और तम तो बुरे जरूर ही है। उनके बारेमे कोई शक नहीं । असलमे तीनो गुणोका क्या स्वरूप है, काम है और यह करते क्या है, इसका पूरा विवरण गीताके चौदहवे अध्यायमे मिलता है। वहाँ देखनेसे पता चलता है कि जीवात्माको बाँधने और फँसानेका काम तीनो ही करते है। इसमे जरा भी कसर नहीं होती। सत्त्व यदि ज्ञान और सुखमे फँसा देता है तो वाकी और और चीजोमे। मगर फँसाते सभी है। इसलिये 'बध्नाति', 'निबध्नन्ति' आदि बन्धन वाचक पद वहाँ बारबार सबोंके बारेमे समानरूपसे आये है। इसीलिये जो मनुष्य इनके पजेसे छूट जाता है उसे उसी अध्यायके अन्तमे गुणातीत–तीनो गुणोसे रहित, उनके पजेसे वाहर --कहा गया है। इन तीनोंसे अपना पल्ला कैसे छुडाया जाय, यह प्रश्न करके उत्तर भी लिखा गया है। इसी तरह “त्रिभिर्गुणमयैर्भावैः" (७।१३-१४) आदि दो श्लोकोमे, बल्कि इनके पूर्वके १२वेमे भी, यही लिखा है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ ही लोगोको मोहमे, भ्रममे, घपलेमे डालते है। तब सवाल यह जरूर होता है कि आगे इसी श्लोकमे सत्त्वकी शरणकी
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