४६२. गीता-हृदयं -शासन इनमे चसक जाने पर मनुष्यको दूसरी बात सूझती ही नही । एक बार इन्हें करके जब इनके रमणीय फलोको भोगता है, या ऐश्वर्य- और इन्द्र आदिकी गद्दी-प्राप्त कर लेता है तो फिर वारवार इन्हींके करने पर उतारू होता है। यही चस्का है। इसका नतीजा यही होता है कि जन्म लेके इन्हे करता, मरके फल भोगता और चसकके स्वर्गादि फल भोगनेके बाद पुनरपि जनमता और कर्म करता है। यही चक्कर चलता रहता है। एक कोढी और गन्दे स्वभावके आदमीकी कहानी है कि वह साल भरमें कभी शायद ही नहाता हो । जाडोमे तो हर्गिज नहीं। मगर घोर जाडेमें मकरकी सक्रान्तिके दिन तडके ही जरूर. नहा लेता था। क्यो? क्योकि उसने सुना था कि माघके महीनेमें सूर्योदयके ठीक पहले पानी बहुत तेज चिल्लाता है कि यदि महापापी भी हममे एक गोता लगा ले, तो उसे फौरन पवित्र कर दें-"माघमासि रटन्त्याप किञ्चिदभ्युदिते रवौ। महापातकिन वापि क पतन्त पुनीमहे ।" यही है वेदवादो और अर्थवादोकी मोहनीशक्ति जिसका उल्लेख यहाँ है। इस श्लोकमे समाधि शब्दका अर्थ दिमाग या अन्त करण लिखा गया है। अनेक माननीय भाष्यकारोने यही अर्थ किया है और यह घटता भी है अच्छी तरह । मगर समाधि का अर्थ योग करना भी ठीक ही है। "समाधिस्थस्य” (२।५४) के व्याख्यानमें हमने इस ओर भी इशारा किया है। यहाँ “समाधिके लिये" यही अर्थ "समाधौ"का है जैसा कि "यतते च ततो भूय ससिद्धौ" (६।४३) में 'ससिद्धी'का अर्थ है "ससिद्धिके लिये"। यहां अभिप्राय यही है कि आगे जिस योगका निरूपण है उसके लिये जो मूल-भूत जरूरी बुद्धि है वह ऐसे लोगोको होती ही नही । वैगुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्यो नियोगक्षेम प्रात्मवान् ॥४॥ हे अर्जुन, वेद तो (प्रधानतया) त्रैगुण्य या सासारिक बातोंके ही
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