दूसरा अध्याय ४६१ तरहके बहुतसे कर्मोंको बताये। (इस तरह) उनका नतीजा यही है कि लोग वारबार जनमते तथा कर्म करते रहें। जिन भोग एव शासनके लोलुप लोगोकी बुद्धि वैसे ही वचनोमे फँस चुकी है उनके दिमागमे तो (कभी) निश्चयात्मक बुद्धि पैदा ही नहीं होती ।४२।४३।४४। इन तीन श्लोकोमे जिन लोगोका सुन्दर चित्र खीचा गया है वही कर्मकाडी मीमासक लोग है । उन्हे नासमझ कहके फटकार सुनाई गई है। "अपाम सोमममृता अभूम" - "सोमयागमे सोमका रस पीके हम लोग अमर बन गये," स्वर्गमे देवताओकी इस तरहकी गोष्ठी और बात-चीतका उल्लेख ब्राह्मण ग्रथोमे पाया जाता है। कठोपनिषदके प्रथमाध्यायकी द्वितीयवल्लीके शुरूके पाँच मत्रोमे कल्याण या मोक्षके मुकाबिलेमे स्वर्गादि पदार्थों तथा उनके इच्छुकोकी घोर निन्दाकी गई है। इसी प्रकार मुडकोप- निषदके प्रथम मुडकके दूसरे खडके शुरूके दस मत्रोमे विस्तारके साथ लिखा गया है कि कर्मकाडी लोग किन-किन कर्मोको कैसे करते और उन्हे कौन-कौनसे फल कैसे मिलते है। वही दसवे मत्र “इष्टापूतं मन्यमाना व- रिष्ठा"मे "प्रमूढा" शब्द आया है जो गीताके इन श्लोकोके "अविपश्चित के ही अर्थमे बोला गया है। उस मत्रमें जो बाते लिखी है उनका उल्लेख भी कुछ-कुछ इन तीन श्लोकोमें पाया जाता है। इनके सिवाय “दर्श पूर्णमासाभ्या स्वर्गकामो यजेत", "ज्योतिष्ठोमेन स्वर्गकामो यजेत", तथा "वाजपेयेन स्वाराज्यकामो यजेत" आदि ब्राह्मण वचनोमे कर्मठोके कर्मों एव उनके फलोका पूरा वर्णन मिलता है । वहाँ इनकी प्रशसाके पुल बाँधे गये है। इन्ही प्रशसक वचनोको वेदवाद और अर्थवाद कहते है। इन्हे पढके लोग कर्मोमे फँस जाते है। इसीका निर्देश इन श्लोकोमे है। पूर्वोक्त मुडकके वचनोमे एकने "प्लवाद्येते अदृढा यज्ञरूपा" (१।२७) के द्वारा इन यज्ञयागोको कमजोर नाव करार दिया है, जिस पर चढनेवाले अन्तमे डूबते है । गीताने भी इसीलिये इनकी निन्दा की है।
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