४५८ गीता-हृदय 1 भीतर ही है । इसीलिये तो "मियाँकी दीड मस्जिद तक" ही है। लेकिन जिसे दुनियाकी, सासारिक पदार्थोकी पर्वा न हो वह क्या करे ? वह इन वेदोके झमेलेमें क्यो पडे ? वेदोसे अभिप्राय है उसके कर्मकाड भागसे ही। क्योकि वही वेदोका प्रधान भाग है-प्राय सब कुछ है । ज्ञान काड तो बहुत ही थोडा है-एक लाखमे सिर्फ चार हजार | वेदोके एक लास मत्रोमें पूरे छयानवे हजार कर्मकाडके और केवल चार हजार ज्ञान काडके माने जाते है। "लक्ष तु वेदाश्चत्वार" कहा है। गृहस्थोंके यज्ञो- पवीतके छयानवे चतुरगुलोका अभिप्राय उन्ही छयानवे हजारसे है। सन्यासीको यज्ञोपवीत नही है। उसका ताल्लुक चार ही हजारसे जो है और है वह छयानवेके बाहर । बस, गीताने कह दिया कि-"रहे वांस न वाजे बांसुरी"। मसारकी, गुण्यकी पर्वा छोड दो और वेदोंके दायरेसे बाहर आ जानो। फिर तो कर्मयोगका रास्ता साफ है । ऐसी दगामे यासिरी और पांचवां सवाल यही हो सकता है कि इस प्रकार मसारके भौतिक पदार्थोसे लापर्वाह होनेसे काम कैसे चलेगा? वेदोका आश्रय लेते है क्या उन पर रहम करके, या किसीकी मुरव्वतसे उनके बिना हमारा काम चलता जो नही। वेदोमें तो छोटे-बडे सभी कर्म आते है और उनके बिना हमारी रोजकी जरुरते भी पूरी हो पाती नहीं। जब हम ससारसे विरागी हो जायेंगे तो वेदोकी पर्वाह नही करेगे, यह कहना जितना आसान है इस पर अमल करना उतना सहज नही है। क्योकि तब हमारी जरूरते कौन पूरा करेगा? हमारी चीज-वस्तुकी रक्षा भी कौन करेगा ? एक यह बात भी है कि वैदिक कर्मकाडके सकटोंसे तो हम जरूर बच जायेंगे। मगर उनके चलते जो आनन्द मिलता है उसकी कमी कैसे पूरी होगी तो रही जायगी न ? कर्मयोगके आनन्दमे स्वर्गका आनन्द कैसे मिलेगा ? तो असभव है। इसका सीधा उत्तर गीता यही देती है कि इसमे सभी चीजे आ जाती ? ? वह यह
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४५१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।