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दूसरा अध्याय ४५७ इन सबोकी गारन्टी है नही । स्वर्गादि तो युद्धसे शायद ही मिल सके। यह तो कर्म मार्ग ही ऐसा है कि इन सभी पदार्थोको प्राप्त करवा देता है । उससे आसान रास्ता, सभी बातो पर गौर करनेके बाद, दूसरा रही नही जाता। बेशक उनकी यह बात काफी मोहनी रखती है। मगर गीताने कह दिया है कि ये पदार्थ बड़ी दिक्कतसे यदि मिलें भी तो इनके लिये, और इनके परिणाम स्वरूप भी, जन्म-मरणका सिलसिला निरन्तर लगा ही रह जाता है । जन्म-मरणके कष्ट किसे पसन्द है ? यह भी बात है कि मनोरथोमे जब इस तरह मनुष्य फँस जाता है तो उसे कोई और बात सूझती ही नही । स्वर्गादिकी हाय-हायके पीछे एक तरहसे वह अन्धा हो जाता है। उसे चैन तो कभी मिलता नही । यह करो, वह करो, यह क्रिया बिगडी, उस कर्ममें विघ्न, इसकी तैयारी, उसकी पूर्तिकी हाय तोबा दिनरात लगी ही तो रहती है। अगर इतनी बेचैनीके वाद यदि ये चीजें मिली भी तो किस काम की ? यह भी बात है कि मिलने पर चस्का लग जानेसे फिर जन्म, पुनरपि क्रिया, फिर मरण, यह तांता टूटता ही नही । मनुष्य विषयासक्त होके विवेक मार्गसे जाने कितनी दूर जा पहुँचता है और कोई निश्चय कर पाता नही। मगर कर्मयोग इन सभी झझटोसे पाक साफ है। चौथी बात उनकी यह है कि वेदोकी आज्ञा जव यही है तो किया क्या जाय ? उनके आदेशोको कौन टाले ? हिम्मत भी ऐसी किसकी हो सकती है ? इसलिये चाहे हजार दिक्कत मालूम हो, फिर भी इसमें आना ही पडेगा। इसका उत्तर गीता साफ ही देती है कि ये तो सासारिक झमेले है, दुनियाकी झझटे है जिनमे ये कर्म हमे फँसाते है । हमे चैन लेने तो ये देते नही। वेदोका काम भी तो यह आफत ही है न ? वह भी तो इस त्रिगुणात्मक ससारमे ही हमे फंसाते है । आखिर वह भी तो त्रिगुणके 1