४५४ गीता-हृदय मनीरामपर मुसक चढा दी है। यहाँ तो मन ही मस्तरामके कब्जेमें पडा रो रहा है। उसकी आई-वाई ही हजम है । इसीलिये उसके सभीके सभी चेले-चाटी और दूत-इन्द्रियाँ-भी मनहूस है, वेकारसी पडी है । तव मात्रास्पर्श कैसे हो और आगेकी लीला भी कैसे खडी हो ? यहाँ तो सारा नाटक ही वन्द है । यह भी नहीं कि मस्तराम पत्थर है या मुर्दा, जिससे सुख-दुख आदि जानते ही नहीं। वह तो सब कुछ जानते ही है। मगर जान लेना दूसरी चीज है और उसमे चिपक जाना निराली बात है। स्त्रीको वरागी भी देखता है और लम्पट भी। मगर दोनोके देखनेमें फर्क है- बहुत बडा बुनियादी फर्क है । यही बात सुख-दु खादिके मुतल्लिक भी है । पन्द्रहवे श्लोकमें जो 'व्यथयन्ति' लिखा है वही इस फर्कको ठीक-ठीक बताता है । उसका अर्थ गढेके पानी या दहीके मथने और बन्दर या कुत्तेके झकझोरनेके दृष्टान्तमें बताया जा चुका है। भौतिक पदार्थोके ससर्ग जिसे व्यग्र, उद्विग्न, परीशान या बेचैन नही कर सकते, नही कर पाते वही सुख-दु खमें सम है, एकरस है, समदु ख-सुख है, समदर्शी है । उसके दिल-दिमागकी गभीरता, स्थिरता और एकरसता विगड पाती नहीं। वह इन अन्धड-तूफानोके हजार आनेपर भी पर्वतकी तरह अचल, रहता है, न कि घास-पात या पेड-पल्लवकी तरह काँपता और वेचैन हो जाता है। उसके दिल-दिमागकी समता और गभीरता (Serenity and balance) कभी बिगडती (upset) नहीं। फिर पाप- पुण्यका क्या सवाल ? ये तो बहुत नीचे दर्जेकी चीजे है और वह इतना ऊँचा उठा है कि जैसे चाँदको कोई छू नही सकता चाहे हजार कोशिश करे, वैसे ही उसे पुण्य-पाप छू नही सकते, उसके निकट फटक नहीं सकते। वह तो मस्त है । वेशक, दुनियाकी वेचैनी देख-देखके मुस्कुरा उठता है, कभी-कभी हँस देता है। इस चीजका ज्यादा विचार पहले ही हो चुका है। यहाँ अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। अटल
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