दूसरा अध्याय ४५३ इन्द्रियोकी पीठ ठोकता है और वह भले-बुरे सभी पदार्थोके साथ जुट जाती है। यही तो है मात्रास्पर्श । गुरुजनो, इष्ट-मित्रो, वन्धु-वान्धवो एव पुत्र-कलत्र आदिका ताल्लुक और है क्या यदि मात्रास्पर्श नही है ? जो सहृदय न हो, जड-पत्थर हो या पत्थर जैसा हो, पागल हो उसमें या तो इन्द्रियाँ होती ही नही, या वह काम करती ही नहीं। इसीलिये वैसोको क्या सुख-दुःख होगा? इस प्रकार मात्रास्पर्श होनेके वाद ही बुरी-भली चीजोका अनुभव होता है, उनकी जानकारी होती है, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, अपने-पराये आदिकी जानकारी होती है। जैसा कि आगको छूते ही गर्मीका अनुभव हुआ करता है और वर्फको छूते ही सर्दीका । उसीके बाद हाथ-पाँव जलते या ठिठुरते है और फौरन तकलीफ या आरामका, दुख और सुखका अनुभव होता है । फिर तो इन्सान या तो आनन्दमे विभोर हो जाता है, या कलेजा पीटके वेहोश । यदि सुख-दुख हलके रहे तो यह वात कम हुई। मगर अगर काफी हुए तो यह हालत भी परले दर्जेकी हो गई ! मनके जालकी बातको लेकर हम आनन्द-विभोरता या तकलीफवाली सुधीको ही यहाँ ले रहे है । इस तरह जव यही बात बार-बार होने लगी तो मनने समझ लिया कि आत्मारामपर हमारा पूरा कब्जा हो गया। वह ताड जाता है कि अब तो बन्दर अच्छी तरह फंस गया, इसलिये इसे जैसे चाहे नचा सकेगे। युद्धमे भी पहले जय-पराजय, वादमे लाभ-हानि और अन्तमे सुख-दुख होता है जिसका जिक्र श्लोकमे आया है। मगर ऐसा भी होता है कि किन्ही मस्तराम फकीरके पास चाहे आप अच्छीसे अच्छी या बुरीसे बुरी चीजे लाये, उनपर उनका कोई असर होता ही नहीं । क्यो ? असलमें वहाँ उलटी वात जो है । कहाँ तो दूसरोके मनीराम-मन-आत्मारामको नचाने और फंसानेकी कोशिशमे रहते तथा सफल भी होते है और कहाँ मस्तरामके आत्मारामने ही उलटके
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