२६ गीता-हृदय - भगवानको मोचनो पढो, ऐसा कहा जाता है। प्रागे भो एंगी परीगानी न हो इमा पयालमे उनने प्रह्लादमे कहा कि नव पंवारा जोडले गेरे नाय ही चलो। लोगोको ज्ञान-ध्यान मिसाना छोटो। गपर प्रद्वादका जो भोलाभाला, पर अत्यन्त कामका, बहुत ही ऊँने दर्जे का, उन मिला वह इसा गाताके कर्मयोगका पोपा है। वह करते है कि भगवन्, ऐना तो अकमर होता है कि मभा ऋषि मुनि दूसरोका पर्वा बोल चाचाप एकान्तमे चले जाते और अपनी हो मुक्तिको फिफ्रम तग जाते है । तो क्या मै भा पापको प्राज्ञा मानके एमाही म्वार्थी बन जाऊँ ? हगिज नहीं। मैं ऐमा नही कर सकता। मुझं अकेले मुक्ति नही नाहिये । पाकि तव तो इन मामारिक दुनियोका पुसाहाल कोई रहो न जायगा जो प्रापको इनके हितार्थ बलात् इमा तरह नीचे 'प्रायेणव मुनयः स्वविमुक्तिकामा, मौन चरन्ति विजने न पगर्यनिष्ठा । नतान् विहार कृपाणान् विमुमुक्ष एको नान्य त्वदस्य गण भ्रमतोऽनुपश्ये।' (भागवत ७।६।४४) । "योगस्य कुरु कर्माणि" (२।४८) आदि श्लोकोमे गोताने भी यही कहा है। आरुरुक्ष और आरूढ़ कर्मके त्याग या मन्यासको दशा एक और भी है। एक तो समदशनकी अवस्थामे जानेसे पहले उसको तैयारी करनी होती है। दूसरे यह अवस्था पानेपर उसमे दृढता लानेके लिये प्रयत्न किया जाता है। तैयारोमें भी ऐमा होता है कि सबसे पहले उम अोर मनका जाना और लगना जरूरी है । जव मन चाहेगा कि हम उस दशामे प्रारूड हो, पहुने और पक्के हो तभी तो दूसरे यत्न होगे । इमे ही पुराने लोगोने विविदिपा, जिज्ञासा वगैरह नामोसे पुकारा है और ऐसी प्रवृत्तिवाले को विविदिपु, जिज्ञासु श्रादि कहा है । गोतामे इसे आरुरुक्षा और ऐसे आदमोको पारुरुक्षु नाम
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