संन्यास और लोकसंग्रह २५ A गीताने जिस प्रकार कर्म-सन्यासके इस उच्च आदर्शको माना है और बार-बार उसका उल्लेख किया है उसी प्रकार ज्ञानोत्तर कर्म करने- वाली बातको भी स्वीकार करके उसे कई जगह कर्मयोग या योग नाम दिया है और उसे करनेवालोको कर्मयोगी और योगी आदि शत्दोसे याद किया है। ताके भाष्यकी भूमिकामे शकराचार्यने साफ ही कहा है कि सम- दशियो और ब्रह्मज्ञानियोके कर्मको तो हम कर्म मानते ही नही, उसे कर्म कहना ही भूल है। क्या भगवान कृष्णके कर्मको कर्म कहना उचित है ?-"तत्त्वज्ञानिना कर्म तु कर्मैव न भवति यथा भगवतः कृष्णस्य क्षात्र चेष्टितम्" । कर्म तो उसे ही कहते है जिसमे बाँधने, फँसाने या सुख-दुःख देनेकी शक्ति हो। मगर समर्शियोका कर्म तो ऐसा होता नही। वह तो ज्ञानके करते जडमलसे जल जाता है। उससे बन्धन नहीं होता, जैसाकि-"ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्" (४।१६), "कृत्त्वापि न निबद्धयते" (४।२२), "समग्न प्रविलोयते” (४।२३), "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते" (४१३७)-आदि गीता वाक्य बताते है यही कारण है कि विधानसिद्ध कर्मोके सन्यासी होते हुए भी खुद शकर लोक सग्रहार्थ जीवनभर कर्म करते ही रहे। इसमे विधि- विधानकी तो कोई बात न थी। यह तो स्वभावसिद्ध चीज थी। विधिविधानके अनुसार किये गये कर्म तो बन्धक होते है और ये वैसे नहीं होते। इसीलिये शकरने इन्हे त्यागनेपर कभी जोर न दिया। हिरण्यकशिपुके मारनेके बाद नृसिंह और प्रह्लादका एक सवाद भागवतमे आया है। हिरण्यकशिपुके मारनेमे नृसिहको वडी दिक्कतका सामना करना पड़ा था। क्योकि वह न दिन मे मर सकता था, न रातमे, न जमीनमे, न आसमानमे और न आदमीसे या जानवरोसे ही। इसीलिये खिचडी रूप बनाके सन्ध्या समयमे अपने हाथमे लेके ही उसे मारनेकी वात
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