४३६ गीता-हृदय (और यह भी इमीलिये कि) यह पहले न रहके पीछे होती जो नही और होके उसके वाद नही रहती भी नही । इसीलिये यह जन्मरहित, नित्य---- कालसे जो घिरी न हो--, हमेशा रहनेवाली और प्राचीन (से भी प्राचीन) चीज है (जो) शरीर नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती ।२०। इसमे एकाध बाते कुछ समझनेकी है, हालांकि वह नई नही है । जो वात "नासतो विदाते"में कही जा चुकी है वही यहाँ दूसरे शब्दोमे कही गई है। श्लोकके पूर्वार्द्धके आधेमें आत्माके जनमने-मरनेका निपेध है। शेष प्राधेमे उसका कारण दिया गया है। जन्म लेने का मतलव ही है पहले न रहके पीछे होना या अस्तित्वमें आना। परन्तु आत्मामें यह बात नही है । वह तो पहले भी थी ही। फिर उसका जन्म हो कैसे ? इसी तरह मरनेके मानी है कभी रहके बादमे न रहना । मगर आत्मामे तो यह भी बात नहीं है। उसके कभी भी न रहनेका तो सवाल ही नहीं है । तब उसका मरना कैसे सभव है आत्माको बुद्धि पकड तो सकती नही । फिर भी उधर जानेकी कोशिश करती रहती है। उसके लिये प्रात्मा तक पहुँचनेकी सीढी यही है कि जो चीजे उसकी पकडमें आती जाये उन्हें छाँटती चली जाय । इसीको उपनिपदोमे 'नतिनेति'की रीति या निषेध प्रक्रिया कहा है। इस तरह सव भौतिक पदार्थोंको छाँटते-छाँटते जो सबोका मूलाधार बच रहेगा आत्मा वही पदार्थ होगा। क्योकि निराधार तो कोई चीज होती नही। इस श्लोकके उत्तरार्द्धमे यही निषेधवाली रीतिका अनुसरण है। इसीलिये अजका अर्थ है जन्मरहित या जन्म लेनेवालोंसे निराला। नित्यका अर्थ है जो समयसे बंधा न हो। अनित्य पदार्थों को समय घेरे रहता है, वह समयके ही पेटमें, उसके ही भीतर रहते है। मगर आत्माके बारेमें यह बात नही है। नित्य शब्द यद्यपि निषेध रूपमें मालूम नही होता, तथापि ऐसा ही अर्थ करना ही होगा। शाश्वतका भी यही अर्थ है । ? }
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