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दूसरा अध्याय ४२७ ही वात उठाके पीछे देहकी इसीलिये उठाई है कि आमतौरसे लोग भीष्म आदि शब्दोसे आत्माको ही समझते है, न कि देहको । अर्जुनने भी स्वर्ग, नर्क आदिकी बाते उठाके खुद मान लिया है कि भीष्मका अर्थ है आत्मा । क्योकि शरीर तो यही रह जाता, सड-गल या जल जाता है। वह तो स्वर्ग या नर्कमे जाता है नही । वहाँ जानेवाली चीज तो शरीरसे जुदा आत्मा ही है। इसीलिये उसी आत्माकी बात लेके पहले कृष्णने कहना शुरू किया। मगर जो लोग भीष्मादि कहनेसे उनके भौतिक शरीरो या इन्द्रियादिको ही समझते है उन्हे भी मुँहतोड उत्तर देना ही चाहिये, इसीलिये आगे “मात्रास्पर्शा" (२।१४) "अन्तवन्त इमे" (२।१८) तथा “अथ चैन” (२।२६) में उनकी बात भी आई है। इसी- लिये पहले- श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्व प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पंडिताः ॥११॥ श्रीभगवानने कहा-(यह अजीब बात है कि एक ओर तो) तू उन्हीकी चिन्ता करता है जिनकी करना न चाहिये और (दूसरी ओर) अक्लकी बाते बोलता है । (क्योकि) पडित लोग (तो) मरे-जियोकी चिन्ता करते ही नही। (शोक या चिन्ताके मानी है यहाँ पर्वा करना)।११ न त्वेवाहं जातु नास न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥१२॥ ऐसा तो हो सकता नही कि हम पहले कभी न भी थे, तुम्ही न थे (या) ये राजे ही न थे और यह भी नही कि, इसके बाद भी हम सभी न होगे ।१२।