२४ गीता-हृदय देव, वामदेव, मनक, मनन्दन श्रादि पा जाते है । यही T प्रकारका कर्म सन्यास है, जिसका मतलब प्रामनौग्गे मी नमकि त्यागमें न होकर केवल विधानमिद्ध काँक त्यागने ही है परन्तु तत्त्वज्ञानी या ममदगनवाले एक दूसरे प्रकारे भी महापग्य होते है और जनक प्रादि इसी श्रेणीक माने जाने है। जिन प्रसार परनी श्रेणीवालोंके कर्म अनायाम ही छूट जाते। ठीक उसी नगर, जिगह पकनेपर वृन्त या वृक्ष-गासाने छटवे फन गिर पाता, ठीउनी प्रसार दूसरी श्रेणीवालोय कर्म जारी ही रहने है, जंग पच्चा फन बन्न या टारनाम लगा रहता है। अगर पके फनको बनान् टहनी में लगाया जाय नो वह मदने लगता है और यदि कच्नको ममयने परलं नोटा जाय नो का मो या तो नीरस होता या नउने ही लगता है। बहुत दिनों नगार और अभ्यामके फलम्बम्प जमे पहली श्रेणीवालोका मन कमि गोनही प्राना उपगम और विरागी हो जाता है, ठीक उसी तन्ह दूसरी श्रेणीवालीका मन कर्मो मे ही मजा पाने लगता है। यदि यह वान न हो तो पग्लं दर्जेका लोक गग्रहार्य कर्म कभी होईन मके। गयोकि जो पहुँने हुए है वे सबके सब यदि विरागी हो जाये तो विधान-प्राप्न कोको करेगा गोन? और अगर वह न करे तो दूसरोका कर्म तो उम उच्चकोटिका होइ नरी गगता। उसमे कुछ न कुछ अपूर्णता रही जायगी। कन्नेवाले गुद जो पूर्ण नहीं ठहरे । सृप्टिके नियमके अनुसार इसीलिये एक दल ऐमा होता ही है । सन्यामियोके भी उस दूसरे दलकी जरुरत इसीलिये है कि परने दर्जेकी मस्तीका नमूना गौर कोई पेश कर नहीं सकता। फलत बैंगे प्रादगी ओर लोग खिंच नहीं सकते। यह भी एक निराले ढगका 'लोकमगह' ही है, जो मम्तीके सम्बन्धमे सन्याराके स्पर्म है । इनीको पाने वृद्रोने जीते ही पूरा मुर्दा बन जाना लिखा है, जिसमे सुम-दुगपादिका कुर भी असर पडी न सके-ये सभी टक्कर मारके हार जायें ।
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