दूसरा अध्याय ४२१ इसीलिये तो मुनासिब मौकेपर ही उलटा खिंच जाता और काम बिगाड देता है जिसके फलस्वरूप दूसरे ढगसे कही ज्यादा खर्च हो जाता है। आत्माको ठीक-ठीक न जाननेवाले भी उलटा ही काम करते रहते है। इसीलिये अर्जुन जानना चाहता है कि आत्मतत्त्व क्या है, आत्माका असली रूप क्या है, बुरे-भले कर्मोका क्या रहस्य है, आदि बातें उसे अच्छी तरह समझा दी जायँ । ताकि उसके दिमागका अँधेरा दूर होके कर्त्तव्यपथ प्रशस्त हो सके । इसीलिये "उपहतस्वभाव"मे जो स्वभाव शब्द है और जिसका अर्थ पहले ही आत्माका असली रूप या हस्ती किया जा चुका है वह भी ठीक ही है । अज्ञानके चलते आत्माके स्वरूपका उपहत, विकृत या मरने-मारनेवाला मालूम होना ठीक ही है। न हि प्रपश्यामि भमापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥८॥ क्योकि भूमडलका निष्कटक समृद्ध राजपाट और देवताओका आधि- -इन्द्रका पद-मिल जानेपर भी मुझे तो (ऐसी चीज) नजर नही आ रही है जो इन्द्रियो (तक) को सुखा डालनेवाले मेरे इस शोकको दूर कर सके ।। पत्य- सजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णी बभूव ह ॥६॥ सजय कहने लगा-शत्रुको तपानेवाला अर्जुन हृषीकेश-कृष्ण- से इस तरह कहके और (उन्ही) गोविन्दसे (यह भी) कहके कि (हर्गिज) न लडंगा, चुप्प हो गया ।। तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिद वचः॥१०॥
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