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४२० गीता-हृदय नशेमें जैसे दिमाग चकराता है वैसे ही यहाँ कृपणताके नशेसे बुद्धि चकरा गई है। यहाँ नशा और दोष एक ही चीज है। कृपण और कृपणता किसे कहते है इसके सम्बन्धमे बृहदारण्यक उपनिषदके तीसरे अध्यायके आठवें ब्राह्मणका दसवां मत्र इस तरह है-'यो वा एतदक्षर गार्यविदित्वा- स्माल्लोकात्प्रेति स कृपणोऽथ य एतदक्षर गार्गिविदित्वास्माल्लोकात्प्रेति स ब्राह्मण ।" इसका आशय यही है कि “गागि, इस अविनाशी आत्माको जाने बिना ही जो मर जाता है वही कृपण है, और जो इसे जानके मरता है वही ब्राह्मण है।" गीताको जब उपनिषदका ही रूप मानते है तब तो कृपण और कृप- णताके अर्थके सम्बन्धमें उपनिषदके उक्त वचनका सहारा लेना ही होगा। आमतौरसे कजूसके अर्थमे कृपण शब्द बोला जाता है। मगर वह मतलब तो यहाँ है नही । अर्जुनकी कजूसीका यहाँ सवाल ही है क्या ? उसे कुछ खर्चना तो है नही। यह भी नहीं कि युद्ध में शक्ति खर्चनेसे डरता हो । उसके सामने तो मरने-मारनेवाला सवाल चट्टानकी तरह खडा है । उसीको लेके स्वर्ग, नर्क और धर्मनाश, कुलनाशादिकी समस्याएँ उठ पडी है। फिर खर्चकी कजूसीकी क्या बात ? वह यह खुदबखुद कहता भी कैसे कि मै कजूसी कर रहा हूँ ? और अगर कजूसी होती तो फिर कृष्णका जवाब दूसरे ढगका क्यो होता ? वह तो आत्माकी अजरता, अमरता और अविनाशितासे ही शुरू करते है । इससे भी पता चलता है कि प्रात्माके यथार्थ स्वरूपके न जाननेको जो बृहदारण्यकमे कृपणताके नामसे पुकारा है उसीसे यहाँ अभिप्राय है। नहीं तो प्रश्न कुछ और उत्तर कुछ दूसरा ही हो जायगा न ? मर्ज दूसरा और दवा निरालीवाली बात जो हो जायगी। इसलिये कृपण शब्दका वास्तविक अर्थ तो यही है। कजूसके अर्थ में तो वह इसीलिये बोला जाता है कि वैसा आदमी भी अज्ञानी होता है । वह अपनी चीजका ठीक उपयोग या खर्च जानता नहीं।