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संन्यास और लोकसंग्रह २३ , रहनेवाला कमल का पत्ता पानी से निर्लेप एव असम्बद्ध रहता है, वही दशा इनकी है । जहाँ दुनियाकी जरा भी पहुँच नही उसी मस्तीके ये शिकार है-उसीमे झूमते है और जिसमे दुनिया झूमती है उससे ये महात्मा लाख कोस दूर है। ताने इन्हें सयमो कहा है- "तस्या जागर्ति सयमी" (२।६९) और बताया है कि ससारकी अोरसे ये बेखबर होते है, उधरसे सोते रहते है। ससार इनके लिये अँधेरो रात या रातकी चीज है। इसोसे दुनिया इन्हे पागल समझती है । इन्ही पागलो और मस्ताने लोगोको दशाको गीताने साख्यनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा नामसे भी पुकारा है। वे इतनी उँचाईपर होते है कि ससारकी लपट उनतक पहुँच पाती ही नही। इसीलिये शरीरयात्रा- की क्रियाओके होते रहनेपर भी इनके भीतर कर्तव्य-बुद्धि कभी पैदा होती ही नही। ये लोग कभी भी ऐसा नही समझते कि हमारे लिये अमुक कर्तव्य है । कर्त्तव्याकर्त्तव्यके खयालसे बहुत ज्यादा ऊपर होनेके कारण उसकी सतह या धरातलमें उनका पहुँचना असभव हो जाता है। उनकी तो दुनिया ही दूसरी होती है, निराली होती है यदि उसे दुनिया कहा जा सके। यही कारण है कि कर्म करने, न करनेके जो विधिनिषेध है, इस तरहके जो विधान है वह उनके लिये हई नही । ये सयमी महात्मा उन विधि- निषेधो और विधानोके दायरेसे बाहर है । इसीलिये गीताने साफ कह दिया है कि इन मस्तरामोका कोई भी कर्तव्य रही नहीं जाता। “तस्य कार्य न विद्यते" (३।१७) । यही है पक्का सन्यास, त्याग या कर्मका छोडना। जैसे मदिरा पीके मतवाला हुए आदमीको अपने तनकी सुध- बुध नही होती, उससे लाख गुने बेसुध ये सन्यासी होते है । इनने तो महामदिराका पान कर लिया है। कर्मके विधिनिषेध वचनोकी हिम्मत नही कि उनके सामने जा सके। उन्हे सामने जानेमें आँच लगती है। इस प्रकारके सन्यासी या कर्मत्यागी कहे जानेवालोमे शुक- 1