दूसरा अध्याय ४१५ 19 गुरुजनोको न मारके भिक्षावृत्तिसे गुजर करना कही अच्छा है, क्योकि उन्हे मारनेपर तो परलोककी कौन कहे यहीपर खूनमे सने पदार्थोंको ही भोगना होगा, उससे दो पक्ष सिद्ध होते है। एक तो है युद्ध न करके भिक्षावृत्ति तकके लिये तैयारी और दूसरा है लडकरके इसी शरीरसे खूनी पदार्थोंका भोग । इनमें पहले पक्षको यद्यपि अर्जुनने अच्छा ठहरा दिया है। फिर भी इस बातकी पूरी जानकारी तो उन्हे है नहीं। इसीलिये अगले श्लोकमे इसी जानकारीकी बात जाननेके लिये "विद्म" शब्द बोलते है। जिस विट धातुसे यह शब्द बना है उसीसे वेद, वेत्ता, विद्वान् आदि शब्द बनते है । उसका अर्थ है पूरी जानकारी और वही हमे नही है यही वात “न चैतद्विद्म -“यही तो नही जानते"--शब्दोमे कहते है। इसीलिये आगेके भी सातवे श्लोकमे पाँचवे जैसा ही "श्रेय." शब्द कहके कहते है कि जो मेरे लिये अच्छा हो सो कहिये । एक बात और भी है । पाँचवेंमे सिर्फ इतना ही कहा है कि गुरुजनो- को न मारके भीख मांगना भी अच्छा है और यह सर्वसाधारण बात है। इसका यह मतलब तो हर्गिज नही होता कि यह चीज सभीके लिये अच्छी है। हो सकता है क्षत्रियके लिये ठीक न होके भी औरोके ही लिये ठीक हो। यह चीज अच्छी है यह आम लोगोकी धारणा ही तो उनने कही है, न कि अपने लिये भी उसे खामखा अच्छा कह दिया है। इसीलिये सातवे श्लोकमें 'मे' शब्द देकर साफ कहते है कि मेरे लिये जो बात 'श्रेय' हो, ठीक हो वही कहिये । यही वजह है कि पाँचवेके उत्तरार्द्धमे जो दलील देते है कि रोटी-पैसेके ही लिये दुर्योधनके यहाँ फँसे गुरुजनोको मारके उन्हीके खूनसे रंगे पदार्थ यही भोगने होगे, उससे यह झलकता है कि यदि मरनेके. बाद नर्क आदिकी बात होती तो एक बात भी थी। तब देखा जाता। तब सोचते कि चलो, यहाँ तो आराम कर लें, आगे देखा जायगा । मगर यह तो कुछ ऐसी चीज हो जाती है कि उन्हीके खूनसे रँगे पदार्थ ही हमे
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