४१४ गीता-हृदय अर्जुन उवाच कथं भीष्ममहं सख्ये द्रोण च मधुसूदन । इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजाविरिसूदन ॥४॥ अर्जुन कहने लगा-हे मधुसूदन--मधुदैत्यके नाशक--, हे अरि- सूदन---शत्रुनाशक---, (चन्दन, पुष्पादिसे) पूजा करने योग्य भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्यके साथ इस युद्ध में वाणोसे लड़ें कैसे १४॥ गुरूनहत्त्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहव भुजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥५॥ गुरुजनो-बडे बूढो-को न मारके इस दुनियामें भीखसे भी गुजर करना कही अच्छा है। अर्थलोलुप गुरुजनोको मारकर तो यहीपर (उन्हीके) खूनसे रँगे पदार्थोंको भोगना होगा । न चैतद्विः कतरन्नो गरीयो यहा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥६॥ यह भी तो नहीं मालूम कि हमारे लिये (दोनोमे) कौनसी चीज अच्छी है (और यह भी नहीं जानते कि) हम (उन्हें) जीतेंगे या वे लोग ही हमें जीतेगे। जिन्हीको मारके हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्रके बेटे सामने ही इंटे है ।६। इस श्लोकके उत्तरार्द्धके बारेमे तो कोई विवाद नही। उसका अर्थ तो सभी लोग एक ही समझते है । मगर पूर्वार्द्धमें गडवड है और कुछ लोग भटकके दूसरा ही अर्थ कर डालते है। असलमे यदि इससे पूर्वके श्लोकसे इसे जोडके उसी प्रसगमें इसे भी मान लें तो यह दिक्कत न हो। इसीके साथ एक बात और भी करनी होगी। हमे इस श्लोकके 'कतरत्' और 'गरीयस्' शब्दोका भी खयाल करना होगा। हमारे जानते तो इसका सीधा अर्थ इस तरह है। पहले श्लोकमें जो कहा गया है कि
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