दूसरा अध्याय पहले अध्यायमे जो कुछ कहा गया है वह अर्जुनके अपने विचार थे जो बेरोक बाहर आये थे। उनसे उसकी मनोवृत्तिपर पूरा प्रकाश पडता है। कृष्णने देखा कि यह तो अजीव वात है। लडाईके मैदानमें ऐन मौकेपर यह ज्ञान-वैराग्यकी बात और तन्मूलक कर्त्तव्यविमूढता, या यो कहिये कि निठल्ले बैठ जाना तो निराली चीज है। सो भी युद्धमें सबके अग्रणी और नेता-पेशवा--का ही बैठ जाना । अतएव वह कुछ घबराये सही । मगर फिर खयाल किया कि आखिर अर्जुन भी तो आदमी ही ठहरा और आदमियोको ऐसे मौकोपर मानवसुलभ कमजोरियों दवाती ही है। मालूम होता है, यही बात अर्जुनकी भी है। वह कुछ दयाई हो जानेके कारण ही कमजोरी दिखा रहा है। हिसाका भीषण रूप यहाँ अॉखोंके सामने नाच रहा है। इसीलिये यह कमजोरी स्वाभाविक है। उनने यह भी खयाल किया कि इसी भावोद्रेक और प्रेमप्रवाहके करते वह अपने आपको शायद भूल गया है कि उसे वहाँ क्या करना है-- वह इस युद्ध-क्षेत्रमें क्या लक्ष्य और कौन मिशन (mission) लेके आया है । वह यह भी इसीलिये नही सोच रहा है कि इसमें उसकी कितनी वदनामी है। इसलिये यदि यह बात उसे याद दिला दी जाय और इसके चलते होनेवाली हानि सुझा दी जाय तो ,शायद फिर तैयार हो जाय । आखिर ऐन लडाईके समयका यह आगा-पीछा अबतक सब किये-करायेपर पानी जो फेर देगा। इसीलिये दूसरे अध्यायका श्रीगणेश कृष्णकी इन्ही वातोसे ही हुआ । इसीलिये सजयने यही बात धृतराष्ट्रसे कही भी। फलत इस अध्यायके शुरूमे ही-
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