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४१० गीता-हृदय है । इसका मतलब यह है कि पूर्वार्द्धमें जो नरक और पतनकी बात कही गई है उसीकी पुष्टिमें हेतुस्वरूप आगे बातें लिखी गई है। यही कारण है कि 'पितर' शब्दको व्यापक अर्थमें लेके हमने बड़े बूढे अर्थ कर लिया है। पहले भी ३४वें श्लोकमें 'पितर' का यही अर्थ है। इसीलिये सिर्फ किसी स्थान या लोक विशेषमे, जिसे स्वर्ग या पितृलोक कहते है, रहनेवालो के ही अर्थमें हमने उस शब्दको नहीं लिया है। हमारे अर्थमें वे भी आ जाते है। इसीलिये पिंड और उदक क्रियाका भी व्यापक ही अर्थ है । 'फलत अन्न जल आदि से आदर सत्कार एव अतिथि पूजा वगैरह भी इसमें आ जाती है। साधारणत समझा जानेवाला पिंडदान एव तर्पण तो प्राता ही है। दोषरते. कुलघ्नानां वर्णसकरकारकै । उत्सायन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वता. ॥४३॥ वर्णसकर पैदा करनेवाले कुलघातियोंके इन दोषोंके करते सनातन जातिधर्मों और कुलधर्मोका नाश हो जाता है ।४३॥ उत्सन्नकुलधर्माणा मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियत वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥४४॥ हे जनार्दन हम ऐसा सुनते है कि जिन लोगोंके कुल धर्म (आदि) निर्मूल हो जाते है उन्हे जरूर ही नरकमें जाना पडता है ।४४। अहो बत महत्पाप कर्तुं व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुख्लोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता.॥४५॥ ओह, अफसोस, हम बहुत बडा पाप करने चले है । क्योकि राज्य और सुखके लोभसे अपने ही लोगोको मारनेके लिये तैयार हो गये है । ४५॥ यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतर भवेत् ॥४६॥