पहला अध्याय ४०६ पढा नही है उनका तो कोई उपाय नही रह जाता। जब उन्हे जानने और उनपर अमल करनेवाले ही नही रहे तो वे बचें कैसे ? हमने सॉपके जहर उतार देने और मृतप्राय आदमीको भी चगा करनेका ऐसा तरीका देखा है जो न लिखा गया है और न लिखा जा सकता है । वह तो अजीब चीज है जो समझमे भी नही आती है । मगर उसपर अमल होते खूब ही देखा है । इसी तरहकी हजारो बाते होती है। इस श्लोकमे जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जब किसी वशका वश ही खत्म हो जाता है और केवल नन्हे-नन्हे या गर्भके बच्चे एव स्त्रियाँ ही बच रहती है तो नादानी और अज्ञानके गहरे गढेमे वह वश डूब जाता है । फलत. बचे बचाये प्राणी जान पाते ही नहीं कि क्या करे। इसीलिये अधर्म शब्द उसी अन्धकारके मानीमे आया है। अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसकरः ॥४१॥ हे कृष्ण, अधर्मके दवानेपर कुलीन स्त्रियाँ बिगड जाती है (और) स्त्रियोके विगड जानेपर, हे वार्ष्णेय, वर्णसकर हो जाता है ।४१। इसपर विशेष विचार पहले ३१७-३२६ पृष्ठोमे हो चुका है। सकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिडोदकक्रियाः ॥४२॥ (और यह) वर्णसकर कुलघातियोको और (समूचे) कुलको (भी) जरूर ही नरक ले जाता है । क्योकि इनके पितर या बडे बूढे पिंड और तर्पणकी क्रियाप्रोके लुप्त हो जानेसे पतित हो जाते है-नीचे जा गिरते है (और जब बडे बूढे ही पतित हो गये तब तो अधोगति एव अवनतिका रास्ता ही साफ हो गया)।४२। इस श्लोकके उत्तरार्द्धमे जो 'हि' आया है--हि ऐषा (ोषा)- वह कारणका सूचक है । साधारणतया यह शब्द कारण सुचक ही होता .
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