४०८ गीता-हृदय तस्मान्नारे वय हन्तु धार्तराष्ट्रान्स्वबाधवान् । स्वजन हि कथं हत्वा सुखिन. स्याम माधव ॥३७॥ इसलिये हमें अपने ही बन्धु-बान्धव कौरवोको मारना ठीक नहीं है। हे माधव, भला अपने ही लोगोको मारके हम सुखी कैसे होगे १३७। यद्यप्यते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृत दोष मित्रद्रोहे च पातकम् ॥३८॥ यद्यपि लोभके चलते चौपट बुद्धिवाले ये (दुर्योधन वगैरह) कुलके सहारके दोष और मित्रोकी बुराई करनेके पापको समझ नही रहे है ।३८। कथ न ज्ञेयमस्माभि. पापादस्माभिवत्तितुम् । कुलक्षयकृत दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन ॥३६॥ (तथापि) हे जनार्दन, कुलके सहारके दोषको जानते हुए भी हम इस पापसे बचनेके लिये (यह वात) क्यो न समझे ?३६। कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा. सनातनाः । धर्मे नष्ट कुल कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥४०॥ कुलके क्षय होनेसे सनातन--चिरन्तन या पुराने-कुलधर्म चौपट हो जाते है और धर्मोके नष्ट हो जानेपर समूचे कुलको अधर्म दवा लेता है।४०। यहाँ धर्म और अधर्म शब्द सकुचित धर्मशास्त्रीय अर्थमें नही आये है । इसीलिये कुलधर्म कहनेसे ऐसी अनेक बाते, अनेक कलायें और बहु- तेरी हिकमतें भी ली जाती है जिनके बारेमें कही कोई लेख नहीं मिलता। किन्तु जो परम्परासे व्यवहारमें आती है। क्योकि पूजा-पाठ आदि बातें तो पोथियोमे लिखी रहती है। फलत उनके नष्ट होनेका सवाल तो उठता ही नही । वह कायम रही जाती है और किसी न किसी प्रकार उनका अमल होई सकता है। मगर जिनके बारेमें कुछ भी कही लिखा-
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