प्रवेशिका देते हैं। हम द्रोणके कहे श्लोकको लिखके उसीका अर्थ बता देना काफी समभते है। एक श्लोक यो है, "ब्रवीम्येतत्क्लीववत्त्वा युद्धादन्यत् किमिच्छसि । योत्स्येऽह कौरवस्यार्थे तवाशास्योजयो मया" (५७) । इसका भावार्य यह है कि “यही कारण है कि आज मै तुम्हारे सामने दब्बूकी तरह वाते करता हूँ। लगा तो दुर्योधनके ही पक्षमे । मगर विजय तुम्हारी ही चाहूँगा।" उनने साफ मान लिया कि युधिष्ठिरके सामने अन्नघनके ही लिये दवना पडा । उसके बाद युधिष्ठिर सदल वापस आ गये और कुछ अन्य राजनीतिक चालोके बाद महाभारतकी भिडन्त शुरू हुई जिसका वर्णन ४४वें अध्यायसे शुरू हुप्रा है । इस प्रकार अबतक जो कुछ कहा गया है उससे गीताके उपदेशकी परिस्थितिका पूरा पता लग जानेसे उसका तात्पर्य सुगम हो जाता है। इसीलिये गीताके प्रतिपादित विषयमे प्रवेशके लिये और कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती। हाँ, कुछ नाम शुरूमें आये है उन्हे यही जान लेना अच्छा है । धृतराष्ट्र दुर्योधनका पिता था और सजय धृतराष्ट्रका मत्री यह तो कही चुके है । भीष्म, द्रोण और कृपको भी लोग जानते ही है। भीष्म बडे बूढे और सबके पितामह थे। इसीलिये उन्हे भीष्मपितामह भी कहते है। शेष दो व्यक्ति आचार्य थे। उनने शिक्षा दी थी। अश्वत्थामा द्रोणका पुत्र था और विकर्ण था दुर्योधनका भाई। युयुधान एव सात्यकि एक ही व्यक्तिके नाम है। भूरिश्रवाको ही सौमदत्ति (सोमदत्तका पुत्र) कहते थे। धृष्टद्युम्न द्रुपदका बेटा था और द्रुपद था द्रौपदीका पिता तथा पचाल देशका राजा। विराट मत्स्यदेशका राजा था। धृष्टकेतु शिशुपालके लडकेका नाम था। चेकितान यदुवशियोमे एक योद्धा था । वसुदेव यदुवशी ही थे, जिनके पुत्र कृष्ण थे। युधामन्यु और उत्तमौजा, भी पचालदेशके ही निवासी थे। शिविदेशके राजा को ही शव्य लिखा -
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