महात्मा और दुरात्मा २१ चाहे दुनिया इधरसे उधर हो जाय और लोग हजार खुश या रज हो, उसे किसीकी पर्वा नही होती। वह निर्भय और लापर्वा होके एक ही तरहकी बात सोचता-विचारता, वोलता और करता है। विपरीत इसके दुरात्मा या दुष्ट सोचता-विचारता कुछ, कहता कुछ दूसरा ही और काम करता है तीसरे ही ढगका। लोगोके दवाव, डर, भय और लोभ वगैरहका उसपर क्षण-क्षणमे असर होता है। उसकी आत्मा पतित और कमजोर जो होती है-"मनस्येक वचस्येक कर्मण्येक महात्मनाम् । मनस्यन्यद्व- चस्यन्यत्कर्मण्यन्यदुरात्मनाम् ।" इसका साराश यह है कि दिमागका काम है सोचना-विचारना, दिलका काम है किसी वातको पकड रखना, उससे चिपक जाना, उसीपर डटे रहना, जवानका काम है वात बोलना और हाथ-पाँव वगैरहका काम है अमल करना । महान् पुरुषमे इन चारो- दिमाग, दिल, जबान और हाथ-पाँव आदि--का सामञ्जस्य होता है, इनकी एकता होती है, इनका मेल होता है। उसके दिल, दिमाग, जवान और अमलमे एक ही वात पाई जाती है । जरा भी अन्तर नहीं मिलता। शीलमुरव्वत, भयप्रीति, लाजशर्म या हानिलाभका कोई भी खयाल उसे डिगा नहीं सकता। वह पर्वतकी तरह अडिग होके मौतके मुखमे जाता हुआ भी जोई सोचता-विचारता उसेही बेधडक बोलता और तदनु- कूल ही आचरण करता है । प्रह्लाद, ध्रुव, ईसा, हुसेन, मसूर आदिकी गणना ऐसे ही महापुरुषोमे है। लेकिन दुरात्मा या छोटे आदमियोकी ऐसी हालत होती है कि शील- मुरव्वत, हानिलाभ, लाजशर्म, डर दबाव आदिके चलते कदम कदमपर बदलते रहते है-क्षगमे कुछ और क्षणमे कुछ करते रहते है । वे गिरे होनेके कारण सासारिक प्रलोभनोसे ऊँचे उठ नहीं सकते । यह ठीक है कि उनमे भी सभी तरहके लोग होते है। कोई बिलकुल ही गिरे एवं दवे होते है तो कोई उनसे जरा ऊपर होते है और तीसरे होते है दूसरोसे
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