३६४ गीता-हृदय 1 - प्रत्युत अभीतक उसे दुर्योधन आदि अपने ही पुत्रोकी जीतकी आशा लगी है, तब उनने उसका यह भ्रम मिटानेके लिये इतना ही बता दिया कि जो जीतता या हारता है उसकी हालत पहलेसे ही कैसी होती है। इसे ही शुभ-अशुभ लक्षण भी कहते है। फिर व्यास चले गये। इसके बाद धृतराष्ट्रने सजयसे पूछा कि आखिर यह भूमि कितनी बडी है जिसे जीतनेके लिये यह मारकाट होनेवाली है। भीष्मपर्वके चौथेसे लेकर वारहवें अध्यायतक उसी भूमडलके सभी विभागोका वर्णन किया गया है। इसके वाद सजय कुतूहलवश कुरुक्षेत्रकी ओर चले गये। फिर वहाँसे लौटके धृतराष्ट्रको सुनाया कि लो, अब तो भीष्म आहत होके पडे है। यह बात तेरहवें अध्यायसे शुरू होती है और यहीसे गीतापर्वका श्रीगणेश होता है। उसके बाद धृतराष्ट्रका रोना-गाना शुरू हुआ। फिर तो उसने भीष्मके आहत होनेके सारे वृत्तान्तके साथ ही युद्धकी सारी बातें पूछी और सजयने बताईं। दोनो पक्षोकी तैयारीकी भी बात सजयने कही। जिस प्रकार आज भी फौजोकी नाकेबदी होती है और अनुकूल जगहपर लडनेवाले आदमियो, घुडसवारो या तोपखाने आदिको रखा जाता है। ठीक उसी प्रकार पहले भी रखा जाता था। इसीको व्यूह-रचना कहते थे। आजकी ही तरह यह रचना कई तरहकी होती थी। मगर उस समयकी परिस्थिति तथा अस्त्र-शस्त्रकी प्रगतिके अनुसार गाडीके गोल चक्केकी सूरतमें जब लोगोको खडा करते थे तो उसे चक्रव्यूह कहते थे। इसमें दुश्मन चारो प्रोरसे घिर जाता था। इसे ही आज घेरना (encirclement) कहते है । जब कछवेकी सूरतमें रखते जहाँ बीचमें तोप आदि ऊंची जगहपर रहें तो उसे कूर्मव्यूह कहते थे। गीताके पहले अध्यायमें इन्ही व्यूहोका जिक्र है । ज्यादा फौज कम फौजोंके अगल-बगल (Hank)में भी खडी हो जाती और प्रासानीसे विजय पाती थी। इसीलिये धृतराष्ट्रने सजयसे पूछा था कि हमारी फौज तो ग्यारह अक्षौहिणी--प्राय ११-१२
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