३६२ गीता-हृदय ? . न होगा कि न लडनेपर राजपाट न मिलेगा? तो इसमें हर्ज ही क्या है इन्हें न मारनेपर तो भीख माँगके गजर करना भी कही अच्छा है। यह राजपाट ठीक है या वह भिक्षावृत्ति, इसका भी निर्णय तो हो पाता नहीं। मै तो घपलेमें पड़ा हूँ। यह भी तो निश्चय नही कि मी लोग खामखा जीतेंगे ही। ऐसी दशामें मुझे तो भिक्षावाला पक्ष ही अच्छा मालूम होता है। यह प्रश्नोत्तर चखचुख ही तो है। असली चखचुख तो ऐसे सकटके ही समय हुम्रा करती है। फर्क यही है कि अर्जुन और कृष्णकी वातोका तरीका अत्यन्त परिमार्जित था, गभीर था, जैसा कि गीताके शरूके श्लोकोसे पता चल जाता है। हाँ, इसके बाद अर्जुनने यह जरूर किया कि अपनी ही बातपर अडे न रहे । किन्तु कृष्णसे साफ ही कबूल किया कि मेरी अक्ल इस समय काम नहीं कर रही है। इसीलिये कर्त्तव्य-अकर्तव्यका ठीक-ठीक फैसला कर पाता हूँ नही । आप कृपा करके मेरी भलाईके लिये जो बात उचित हो वही कहिये । मै आपकी शरण आया हूँ। नहीं तो मेरे हृदयमें जो महाभारत इस समय हो रहा है और जिसके करते सारी इन्द्रियां शिथिल होती जा रही है, वह मुझे मार डालेगा। उसकी शान्ति भूमडलके चक्रवर्ती राज्यकी तो क्या स्वर्गकी भी गद्दी मिलनेसे नही हो सकती है। इतना कहनेके बाद, मै तो लगा हर्गिज नही, बोलके अर्जुन चुप्प हो गये। उसीके बाद कुछ मुस्कराते हुए कृष्णने दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे गीतोपदेश शुरू किया। वात यह है कि भीष्मके आहत हो जाने, किन्तु मरनेके पूर्व, वीर क्षत्रियोचित शरशय्यापर उनके पडजानेकी खबर जब धृतराष्ट्रको सजयने दी, तो धृतराष्ट्रके कान खडे हुए। उसने समझा कि रग वदरग है। तभी उसने सजयसे घबराके पूछा कि बोलो, बोलो, क्या हो गया। यह हालत कैसे हो गई, लडाईका श्रीगणेश कैसे हुआ, पहले किसने क्या किया ऐसा
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