गीताधर्मका निष्कर्ष ३८५ वश खडे रहे। धर्मव्यावने एक बार उन्हें देखके मुस्कुरा दिया सही; मगर वह अपने काममें घटो व्यस्त रहा। जब कामसे छुट्टो हो गई और दूकान समेट चुका तो उसने उनसे पूछा कि महात्मन्, कैसे चले ? क्या आपको उस स्त्रीने भेजा है ? सिद्ध महात्मा तो और भी हैरान थे कि यह क्या? स्त्री तो भला गृहस्थ का काम करती थी। मगर यह तो निरा कसाई है। फिर भी उसको भी नाक काटता है ! खैर, हाँ कहके उसके साथ उसके घर गये ! उन्हें बैठ के पहले घटो वह अपने वृद्ध माँ-बापकी सेवा करता रहा, जैसे वह स्त्री अपने पतिकी सेवा कर रही थी। मां- वापसे फुर्मत पाके उसने उन्हे भी खिलाया -पिलाया। पीछे उसने वार्ता- लाप शुरू करके कहा कि मैने पहले हजार कोशिश की थी कि इस हिंसासे वयूँ और दूसरी जं विका करूं। मगर विफल रहा। तब समझ लिया कि चलो जब यही भगवानकी मर्जी है तो रहे। बस, केवल कर्त्तव्यबुद्धिसे यह काम करता हूँ। सफलता-विफलता और हानि-लाभको जरा भी पर्वा नही करता। उसके बाद जो साग-सत्तू मिलता है उससे पहले अपने प्रत्यक्ष भगवान-मां-बाप-की सेवा-शुश्रूषा करके उन्हे तृप्त करता हूँ। फिर यदि कोई अतिथि हो तो उसका सत्कार करके खुद भी खाता-पोताहूँ। यही मेरी दिनचर्या है, यही योगाभ्यास है, यही तपश्चर्या और यही भगवानकी पूजा है । वह स्त्री भी पतिके सिवाय किसी और को जानती ही नहीं। उसके लिये भगवान और सब कुछ वही एक पति ही है। यही उसको योगसाधना है और यही न सिर्फ हम दोनोंके वल्कि सारे ससारके कर्मोंका रहस्य है, उनकी कुजी है और वास्तविक सिद्धिका असली मार्ग है। इस पाख्यानमें गीताधर्मका निचोड पाया जाता है। जबतक हम भगवानको, स्वर्ग, वैक , नर्क और मुक्तिको अपनेसे अलग समझ उन्हें पानेके लिये कर्म-धर्म करेंगे और उनमें भो बुरे-भलेका भेद करेगे कि यह २५
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३७८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।