गीताधर्मका निष्कर्ष ३८३ इस विवेचनको सक्षिप्त कर न सके। उसमे हमे खतरा नजर आया। मगर अब हमे आशा है कि हमने जो कुछ लिखा है उसीकी कसौटीपर कसने पर गीताधर्मका हीरा शानदार और खरा निकलेगा। हम जानते है कि उसके लिये सैकडो तराजू और कसौटियाँ अबतक बन चुकी है जो एकसे एक जबर्दस्त है। मगर हमारा अपना विश्वास है कि उनमे कही न कही कोई खामी है, त्रुटि है। जब सभीको अपने विश्वासकी स्वतत्रता है तो हमे भी अपने विचारके ही अनुसार कहने और लिखनेमे किसीको उज्र नही होना चाहिये । हम दूसरेके विचारोको उनसे छीनने तो जाते नही कि कलह हो। हम तो कही चुके है कि गीता तो इसी बातको मानती है कि हर आदमी ईमानदारीसे अपने ही विचारोके अनुसार बोले और काम करे । इसीलिये हमने पुरानी कसौटियोकी त्रुटियोका खयाल करके ही यह कसौटी तैयार की है। हमे इसमें सफलता मिली है या विफ- लता, यह तो कहना हमारे वशके बाहरकी बात है। मगर “कर्मण्येवा- धिकारस्ते"के अनुसार हम इसकी पर्वा करते ही नहीं। हमारी इस कसौटीमे भी त्रुटियाँ होगी, इसे कौन इन्कार कर सकता है ? लेकिन गीतार्थ हृदयगम करनेमे यदि इससे कुछ भी सहायता मिली तो यह व्यर्थ न होगी। महाभारतकी उस बडी पोथीमे जनकपुरके धर्मव्याधका वर्णन मिलता है, जो कसाईका काम करके ही अपनी जीविका करता था। उसीके सिल- सिलेकी एक सुन्दर कहानी भी है जो गीताधर्मको आईनेकी तरह झलका देती है। कोई महात्मा किसी निर्जन प्रदेशमे जाके घोर तप और योगा- भ्यास करते थे। दीर्घ कालके निरन्तर प्रयत्नसे उन्हे सफलता मिली और योगसिद्धि प्राप्त हो गई। फिर क्या था ? उनने वह काम वन्द कर दिया और गाँवकी ओर चल पडे। लेकिन जाने क्यो योगसिद्धिकी प्राप्ति के वाद भी उन्हे सन्तोष न था, भीतरसे तुष्टि मालूम न होती थी। खैर, रास्तेमे
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