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गीतोपदेश ऐतिहासिक ३८१ एक घटेके लेक्चरको लिखनेमे पोथा बन जाता है । गीतोपदेशमे तो कुछ ही मिनटोकी या ज्यादेसे ज्यादा आधे घटेकी जरूरत थी। विश्वरूपका लेक्चर तो हुआ भी नही। वह तो दिखा दिया गया। अर्जुन ऐसा कुन्द थोडे ही था कि समझता न था और बार-बार रगड-रगडके पूछता था। अत. उस मौकेपर भी दस-बीस मिनटका समय निकाल लेना कुछ कठिन न था। फिर भी हमारे ही देश के कुछ महापुरुषो ने जब यह कह दिया कि महाभारतकी बाते ऐतिहासिक नही, किन्तु कविकल्पित है, इसीलिये गीताका सवाद भी वैसा ही है, तो हमे मान्तिक वेदना हुई। केवल हमीको नहीं। हमारे जैसे कितनोको यह कष्ट हुआ। उसी समय कइयोने हमसे अनुरोध किया कि आप इसका प्रतिपादन समुचित रूपसे करे । वे हमारे गीता-प्रेमको जानते थे। इसीसे उनने ऐसा कहा। यदि गोतामे किसीका अपना सिद्धान्त और उसकी हिसा-अहिंसा न मिले तो इसमे गीताका क्या दोष ? वह तो रत्नाकर सागर है । गोते लगाइये तो कुछ मोती-मूंगे कभी न कभी उसमेसे ऊपर लाइयेगा ही। मगर आप जो चाहे सोई उसमेंसे लाये यह असभव है, और ऐसा न होनेपर रत्नाकरके मूलमे आघात करना उचित नहीं। गीताके अपने सिद्धान्त है--गीताधर्म एक खास चीज है जो उसीका है, न कि किसी औरका। ऐतिहासिकताकी वात यो है। आजसे हजारो साल पूर्व कुमारिल भट्टने मीमासादर्शनकी टीका, तत्रवात्तिकमे, सदाचारके प्रसगसे अर्जुनादि पाडवो और कृष्णके कामोपर आक्षेप करके पुन उसका समर्थन किया है। दूसरेकी दृष्टिमे हमारे सत्पुरुषोका काम खटका था। इसलिये वे उन्हे सत्पुरुष नही मानते थे। कुमारिलने खटका हटाके सत्पुरुष करार दिया और कृष्णका नानिहाल पाडवोके यहाँ माना । ब्राह्मणग्रन्थो और उपनिषदो-खासकर छान्दोग्य वृहदारण्यक