गीताकी शैली पौराणिक ३७६ ताजीसे ताजी अग्रेजीकी कितावोमे देखा है कि कठिन बातोको लेकर उन्हें बीसियो वार दुहराते है । यह दूसरी बात है कि अनेक ढगसे वही वाते कहके ही दुहराते है । गीतामे भी एक ही बात प्रकारान्तर और शब्दान्तरमे ही कही गई है, यह तो निर्विवाद है । अतएव गीताके उपदेश- गीताधर्म-की गहनताका खयाल करके पुनरावृत्ति उचित ही मानी जानी चाहिये। गीताकी शैली पौराणिक दूसरी बात यह है कि गीताका विषय और उसके तर्क वगैरह जरूर दार्शनिक है, मगर विषय प्रतिपादनकी शैली पौराणिक है और गीताकी यह एक खास खूबी है । दार्शनिक रीति रूखी और सख्त होती है, नीरस होती है। फलत सर्वसाधारणके दिमागमे वह बात जंचती नही, जिससे लोग ऊब जाते है। फिर भी दार्शनिक इसकी पर्वा करते नही। उन्हे तो सत्यका प्रतिपादन करना होता है। वे उपदेशक और प्रचारक तो होते नही कि लोगोके दिल-दिमागको देखते फिरे । मगर ीता तो उपदेशकका काम करती है। उसका तो काम ही है सार्वजनिक जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाले कामोका विवेचन करना और उनके रहस्यको लोगोके दिल- दिमागमे पहुँचाना। इसीलिये उसने पौराणिक शैली अखतियार की है। इसकी विशेषता यही है कि सवाद, प्रश्नोत्तर या कथनोपकथनके रूपमे यह बाते इसमे रखी गई है । इससे प्रसग रुचिकर हो जाता है, उसमे सरसता आ जाती है। बच्चोके लिये यह सवादकी ही प्रणाली ज्यादा हितकर मानी जाती है। हितोपदेशमे यही वात पाई जाती है और पुराणोमे भी। इसके चलते कठिनसे कठिन विषय भी पालकारिक ढगसे प्रतिपादित होके सहज बन जाते है । चौदहवे अध्यायमे गर्भधारणके रूपमे सृष्टिका निरूपण कितना सुन्दर है ! अर्जुनको दूसरे अध्यायमे जो डाँटा गया
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