स्वभावके प्रभाव १६ ही उन्हे घसीटके दिमागके सामने नीदके समयमे ला देता है। हालांकि स्वभाव जैसी मजबूती उस सस्कारमे कभी होती नही। इसीसे स्वभावकी ताकत समझी जा सकती है कि वह क्या कर सकता है। मेरे गुरुजी महाराज अत्यन्त वृद्ध और प्राय सौ साल के होके मरे थे। उनका हृदय बच्चो जैसा सरल और प्रेमसे ओत-प्रोत–सना हुआ था। बचपनसे ही उनकी आदत थो, स्वभाव था, अपनी उँगलियोपर ही मालाकी तरह प्रोकार या भगवानके नाम के जपनेका। उनका यह काम निरन्तर धारा- वाही रूप से चलता रहता था जबतक नीद न आ जाये । मगर इसका परिणाम यह हो गया कि गाढो नीदमे भो उँगलियोकी वह क्रिया बराबर जारी रहती थी। कितनी ही वार जव मै दिनमे उनके दर्शनोके लिये गया और वे सोये थे, तो अविच्छिन्न रूपसे चालू उँगलियोकी वह क्रिया मैने खुदवखुद देखी है । महान् आत्माअोके कर्मोकी यही दशा होती ही है । कहते है कि कविता है दरअसल कविके हृदयका बहके-प्रवाहित होके बाहर निकल आना । बेशक सच्ची कविता तो इसीको कहते है। वाल्मीकिने वनमे यकायक देखा कि क्रौच पक्षियोका जोडा आपसमे रमा हुआ है। इतनेमे ही एक शिकारीने तीरसे ऐसा मारा कि मादा वही लोट गई। यह देखके नर तिलमिला उठा और इधर दया मुनि वाल्मीकिका हृदय-स्रोत फूट निकला और उनके मुखसे सहसा शब्द निकल पडे कि "मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम शाश्वती समा "निषाद, तुझे भी बहुत दिनोतक चैन न मिलेगा"-क्योकि तूने इन निरपराध पक्षियोमेसे एकको मार डाला है ! कहा जाता है कि, यही वाल्मीकि रामायणकी रचनाका श्रीगणेश है और इसीको लेके वह लम्बी और सुन्दर काव्य रचना हो गई। लोग जो कहते है कि कवि लोग लोकमत वदलने या जनताका दिमाग फेरनेमे कमाल करते है उसका कारण यही है कि उनका जिन्दा दिल कविताके रूपमे खयालोसे विधा 19
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