गीताकी अध्याय-संगति ३६७ भी है कि वह जैसे माताके गर्भसे बाहर आनेके समय था वैसा ही रहे- “यथाजातरूपधर ।" इसलिये इस सन्यासको प्रकृतिगर्भ कहना सर्वथा युक्त है। इस प्रकार छठे अध्यायतक जो बाते लिखी गई है उनके अलावे और कोई नवीन विषय तो रह जाता ही नहीं। यही बाते आवश्यक थी। इन्हीसे काम भी चल जाता है। शेष बात तो कोई ऐसी आवश्यक बच जाती है नही, जो गीताधर्मके लिये जरूरी हो और इसीलिये जिसका स्वतत्र रूपसे विवेचन आवश्यक हो जाय । हाँ, यह हो सकता है कि जिन विषयोका निरूपण अवतक हो चुका है उनकी गभीरता और अहमियतका खयाल करके उन्हीपर प्रकारान्तरसे प्रकाश डाला जाय। उन्हे इस प्रकार बताया जाय, दिखाया जाय कि वे हृदयगम हो जायें। इस जरूरतसे इनकार किया जा सकता नहीं। गीताने भी ऐसा ही समझके शेष १२ अध्यायोमे यही काम किया है। अठारहवेमे इसके सिवाय सभी बातोका उपसहार भी कर दिया है। इसीलिये सातवे अध्यायमे कोई नया विषय न देके ज्ञान और विज्ञानकी ही बात कही गई है । मगर कही लोग ऐसा न समझ ले कि यह बात केवल सातवे अध्यायका ही प्रतिपाद्य विषय है, इसीलिये नवेके शुरूमे ही पुनरपि उसीका उल्लेख कर दिया है। यहाँ पर ज्ञान और विज्ञानका मतलब समझ लेनेपर आगे बढनेमे आसानी होगी। पढ-सुनके या देखके किसी बातकी साधारण जानकारी- को ही ज्ञान कहते है। विज्ञान उसी वातकी विशेष जानकारीका नाम है। इसके दो भाग किये जा सकते है। एक तो यह कि किसी बातके सामान्य (general) निरूपण, जिससे सामान्य ज्ञान हो जाय, के बाद उसका पुनरपि ब्योरेवार (detailed) निरूपण हो जाय। इससे पहलेकी अपेक्षा ज्यादा जानकारी उसी चीजकी जरूर होती है। दूसरा यह कि जिस ब्योरेका निरूपण किया गया हो उसीको प्रयोग (expe-
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