उत्तरायण और दक्षिणायन भी कुछी दूर जाके जनसाधारण अपना दूसरा रास्ता पकड लेते है । उत्तरायणवाले ब्रह्मलोक जाते है। दक्षिणायनवाले स्वर्ग जाते है। शेष लोग दोनोमे कही न जाके मरते-जीते रहते है । यही तो वहाँ साफ लिखा है। स्वर्गसे लौटते हुए चन्द्रलोकमे आके आकाशमे पाते और वायु आदिके जरिये मेघमे प्रविष्ट होके उन अन्नोमे जा पहुँचते है जिन्हे उनके भावी माता-पिता खायेगे। पानीसे तो अन्न होता ही है। गीताने भी यह कही दिया है । इसीलिये वृष्टिके द्वारा अन्नमे जाते है । यही बात छान्दोग्य (५।१०।५-६) मे पाई जाती है। पाँच आहुतियोके रूपमे इसीका विस्तार इसीसे पहलेके ४से हतकके खडोमे किया गया है। मगर साधारण लोग आकाशके बाद चन्द्रमा होते स्वर्गमे नही जाते, किन्तु वहीसे वायुमे होके वृष्टिके क्रमसे अन्नमे आ जाते है । बस, यही फर्क है। अत' कुछ इस तरहका सम्बन्ध इस रातकी मौतसे मालूम होता है कि वह साधारणत दक्षिणायन मार्ग और उस अँधेरे रास्तेसे ही जुटी है-रात्रिकी मौतका दक्षिणायन या अर्द्ध दक्षिणायनवाले अँधेरे रास्तेसे ही सम्बन्ध आमतौरसे है। इसमे केवल अपवाद ही होता है हो सकता है। यह बात अस्वाभाविक या आकस्मिक मृत्यु वगैरहमे ही पाई जाती है जो दिनमे होती है । कमसे कम यही खयाल उस समयके दार्शनिको और विवेकियोका था। इसीलिये भीष्मने दिन और उत्तरायणकी मौतको ही पसन्द किया। इसीलिये उत्तरायणकी प्रतीक्षा करते रहे। उनने और दूसरे लोगोने माना कि इस तरह उनके ब्रह्मलोक पहुँचने या उपासना- के परिपक्व होनेमे आसानी होगी। हमारे जानते यही तात्पर्य इस समस्त वृत्तान्त और वर्णनका है। इसमें सबका समावेश भी हो जाता है। मार्ग या रास्ता कहनेसे तो कोई अन्तर आता नही है। मार्ग तो वह हई । आखिर जमीनका रास्ता तो वहाँ है नही। वह तो दिशा तथा समयका ही है । ऊँचे, नीचे, पूर्व, पच्छिम कही भी जाना हो उसका कालसे सम्बन्ध
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