३६० गीता-हृदय 'गती' और 'सृती' शब्द मार्ग या रास्तेके ही मानीमे आये है। इसलिये, एव छान्दोग्य, वृहदारण्य तथा निरुक्त आदिमे भी उत्तरायणमे आदित्य, चन्द्र, विद्युत् और मानस या अमानव प्रादिका तथा दक्षिणायनमें पितृलोक, आकाश, चन्द्रमा आदिका भी जिक्र है इसलिये भी, बहुतोका खयाल है कि यहाँ काल या समयकी बात न होके कुछ और ही है। इसके विपरीत महाभारतके भीष्म पर्व (१२०) और अनुशासनपर्व (१६७) से पता चलता है कि पाहत होने के बाद.भीष्म वाण-शय्यापर पडे-पडे उत्तरायण- कालको देख रहे थे कि जब सूर्य उत्तरायण हो तो शरीर छोडे । इसीलिये जवतक दक्षिणायन रहा वह प्राणत्याग न करके लोगोको उपदेश देते रहे। इससे तो कालकी ही महत्ता उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में प्रतीत होती है । गीताने शुरूमे काल ही नाम इन दोनोको दिया भी है। इस उलझनको सुलझाने के लिये शकरने कहा है कि प्रधानता तो कालकी ही है। इसीलिये दूसरोके आ जानेपर भी काल ही कहा गया है। क्योकि जिस वनमे ज्यादा पाम हो उसे आम्रवन और जहाँ ब्राह्मण ज्यादा हो उसे ब्राह्मणोका गाँव कहते है-"भूयसातुनिर्देशो यत्रकाले त कालमित्याम्रवणवत् ।" कुछ लोगोने इससे यह भी अर्थ लगाया है कि जव किसी समयमे वैदिक ऋषियोका निवास उत्तर ध्रुवके पास था, जहाँ छे मासके दिनरात होते है, उसी समय उत्तरायणका समय मृत्युके लिये प्रशस्त माना गया। वही वात पीछे भी चल पडी। इसलिये शकर आदिने जो ज्योति , अह आदि शब्दोसे तत्सम्बन्धी देवताओको माना है उसपर उनने आक्षेप भी किया है, हालाँकि काल तो शकरने साफ ही स्वीकार किया है। हमारे जानते तो शकरका लिखना सही है। इसकी सुलझन भी हमे थोडा विचार करनेसे मिल जाती है। हमें इस वातके विवादमे नही पडना है कि उत्तर ध्रुवके पास कभी आर्य लोग या वैदिक
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