यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उत्तरायण और दक्षिणायन मरने के बाद शरीरको तो जलाई देते थे। कमसे कम अग्नि सस्कार करते थे। यह भी कहा जाता है कि जलाने या अग्नि सस्कारके ही समय समान नामक प्राण इस शरीरसे निकलता है । तबतक चिपका रह जाता है। यह खयाल अत्यन्त पुराना है। इसीलिये मृतकका जलाना और अग्नि- सस्कार हिन्दुओ के यहाँ जरूरी माना गया है । यही कारण है कि जो लोग किसी वजहसे मृतकको जला नही सकते वह भी अग्निसस्कार अवश्य करते है । जलानेसे बिगडते-बिगडते यह बात हो गई । मगर इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जलाने के बाद ही जीवात्माकी अतिम बिदाई यहाँसे होती है, ऐसी ही मान्यता थी। यही कारण है कि गीता (८।२४) मे अग्निसे ही शुरू किया है--उत्तरायण मार्गको लिखते हुए अग्निसे ही शुरू किया है। हालांकि जब इस मार्गको ज्योतिरादि या अचिरादि कहते है तब तो अग्निके बाद जो ज्योति शब्द आया है उसे ही शुरूमे आना चाहिये था। इसीलिये अगले श्लोकमें धूमसे ही शुरू किया है। मगर अग्नि देनेका अभिप्राय यही है कि अग्निसे सम्बन्ध तो सभीका होता है। उसके बाद ही दो रास्ते अग्निकी ज्वाला और उसके धूमसे शुरू हो जाते है । यही वजह है कि अगले श्लोकमे अग्नि शब्दकी जरूरत न समझी गई। उसका काम तो पहले ही श्लोकसे चला जाता है । उस एक ही अग्नि शब्दसे और दोनो मार्गोके ज्योतिरादि एव धूमादि नाम होनेसे ही लोग यह आसानी से समझ जायँगे कि अग्निमे जलानेके बाद ही ज्योति और धूमसे सम्बन्ध होगा, न कि पहले। “यत्रकाले त्वनावृत्ति" (८।२३) मे कालका उल्लेख है। उससे यह भी पता चलता है कि दोनो मार्गोंमे काल हीकी बात आती है । लेकिन यहाँ तो शुरूमे अचि और धूम ही आये है । उनके बाद अह , रात्रि, कृष्ण- पक्ष, शुक्ल, उत्तरायणके छ महीने और दक्षिणायनके छे महीने जरूर आये है, ये काल या समयके ही वाचक है भी। लेकिन आगेके श्लोकोमे . स