३५८ गीता-हृदय , जिसमें पूर्वोक्त पांच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच प्राण और मन एव बुद्धि यही सत्रह पदार्थ पाये जाते है-वह शरीर इन्ही सत्रहोसे बना है। मरनेके समय वही निकल जाता है स्थूल शरीरसे, और जन्म लेनेमे वही पुनरपि आ घुसता है। उसीके साथ आत्माका आना-जाना है । खुद तो आ जा सकती नही। आईने के साथ जैसे किसी चीजका प्रतिविम्ब चलता है वैसे ही सूक्ष्म शरीरके साथ आत्माका प्रतिविम्ब चलता है। आत्मा स्वय तो सर्वत्र व्यापक है । वह कैसे पाये जायेगी ? प्राणोका काम है घोडेकी तरह खीचना। उनमे क्रिया जो है । बुद्धि आईना है । उसीमें आत्माका प्रतिबिम्ब है। वही अँधेरेमे रास्ता दिखाती है। यहाँ सवाल यह होता है कि सूक्ष्म शरीरका यह आना-जाना कैसे होता है ? यह किस रास्तेसे, किस सवारी या पथदर्शककी मददसे ठीक रास्तेपर जाता है और चौराहेपर नही भटकता ? रास्तेमे पडाव है या नहीं। पथदर्शक (guide) भी तो अनेक होगे। क्योकि एक ही कहांतक ले जायगा? और यदि एक ही जीवात्माके सूक्ष्म गरीरको ले जाना हो तो यह भी हो । मगर यहाँ तो हजारो है, लाखो है, अनन्त है । रोज ही लाखो प्राणी मरते है। फलत रास्तेमें भीड तो होगी ही। इसीलिये कुछ दूर बाद ही एक पथदर्शक अपनी थाती (charge) को दूसरेके जिम्मे लगाके फौरन लौट आता होगा। फिर दूसरेको ले चलता होगा। इस प्रकार सबकी ड्यूटी बॅटी होगी, बँधी होगी। कितनी दूरसे कितनी दूरतक हरेकका चार्ज रहेगा यह भी निश्चित होगा, निश्चित होना ही चाहिये । जैसा यहाँ भौतिक दुनियामे हो रहा है उसीके अनुसार ही उस दुनियामें भी, जिसे आध्यात्मिक या परलोककी दुनिया कहते है, उनने सोच निकाला होगा। दूसरा करते भी क्या ? दूसरा तो रास्ता है नही, उपाय है नहीं। यही है उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गके मानने- की दार्शनिक बुनियाद। यही है उसका मूल सिद्धान्त । .
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