३५६ गीता-हृदय - लेकिन यदि थोडा भी विचार किया जाय तो पता चलेगा कि इन बातोका उसी कर्मवादसे ताल्लुक है जिसका निरूपण हम बहुत ही विस्तारके साथ पहले कर चुके है । जव हमारे पुराने प्राचार्य, ऋपिमुनि और दार्शनिक पुनर्जन्मको स्वीकार करने लगे तो उनने उसके मूलमे इस कर्मवादको ही माना। सद्गति और दुर्गति या मनुप्य से लेकर कीट-पतग एव वृक्षादिकी योनियोमे जाने और वैसा ही शरीर ग्रहण करनेका कारण वह कर्मको ही मानते थे । अाज हम यहाँ मनुष्य शरीरमें है। कुछ दिन वाद मरके हजार कोसपर पशु या किसी और योनिमें जायेगे। सवाल होता है कि वहां हमें कौन, क्यो पहुँचायेगा और कैसे ? हमने यहाँ बुरा-भला कर्म किया। उसका फल हमें हजारो कोसपर कौन पहुँचायेगा ? जव व्यष्टि और ममष्टि दोनो ही तरहके कर्मों से हमारे शरीर बनते या बुरी-भली वाते होती है, तो यहाँके गैरके द्वारा किये गये कर्मोसे हमारा शरीर कही दूर देशमें कैसे बनेगा कि हम उस गैरको वही उसी शरीरसे सतायेगे या पाराम देंगे? श्राद्ध, यज्ञयागादि हमारे लिये कोई भी करे और उसका नतीजा हमें भी मिले-क्योकि एकके कर्मका फल दूसरेको भी मिलता ही है, यह वता चुके है-इसकी व्यवस्था कैसे होती है ? किसीने हमारे मरनेपर पिंडदान या तर्पण किया और हम वाघ या सांपकी योनिमें जनम चुके है, तो उस श्राद्ध या तर्पणका फल मास या हवा आदि के रुपमे हमें कौन पहुँचायेगा? वाघको मास हो चाहिये न ? भात या पाटेका पिंड तो उसके किसी कामका नही। वह तो यही रह जाता है भी। साँपको भी तो हवा चाहिये। ऐसी ही वातोपर सोच-विचार करके उनने कर्मवादकी गरण ली। साथ ही सवकी व्यवस्थाके लिये एक व्यापक चेतन शक्तिको मानकर उसे ईश्वर नाम दिया। ईश्वर कहते है शासन करनेवालेको। इसी कर्मवादके सिलसिले में यह उत्तरायण और दक्षिणायनवाली बात भी आ गई। हम तो कही चुके है कि हरेक पदार्थोसे अनन्त परमाणु ?
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