कर्तव्य कर्म १७ तब रह-रहके विराम आ जाता हो, तबतक तो इसके मानी कुछ हो भी सकते है। तबतक पहलेवाला ऊँचे उठना और ऊपर चढना अपने स्थानपर रह सकता है । मगर जब इस भावना और धारणाकी पूर्ति हो गई, ब्रह्मार्पण कहना बेमानी है। इसीलिये उस हालतमे जो कुछ भी कर्म होता है वह केवल कर्त्तव्य समझके ही होता है। जिसे अग्रेजीमे 'ड्यू फॉर ड्यूटीज सेक' (duty for duty's sake) कहते है वही है कर्त्तव्य बुद्धिसे कर्म करनेका अर्थ । “कार्यमित्येव” (१८६), "यष्टव्यमेवेति” (१७।११), "दात- व्यमिति” (१७।२०) आदि गीतोक्त वचनोका यही मतलब है। चाहे किसीका कुछ भी प्रयोजन हो या न हो, मगर कर्म तो इस सृष्टिका नियम (law) है । क्रिया ही तो सृष्टि है। इसलिये कर्म तो होता ही रहेगा जबतक ससार बना सृष्टि बनी है। इससे छुटकारा तो किसीको मिल सकता है नहीं। हाथ-पाँव आदि इन्द्रियोकी तो यहीं बात है कि उनसे कोई न कोई क्रिया होती ही है। नही तो वे रहे ई न । इसलिये यह आत्मदर्शी पुरुष कर्मोकी नाहककी उधेड-बुनमे तो पडता नही कि उनका प्रयोजन क्या है । उसे इसकी फुर्सत कहाँ ? उसका मन, उसका दिलदिमाग इस तुच्छ चीजके पास फटकने भी क्यो पाये ? उसे आगापीछा सोचनेकी फुर्सत ही नही होती-उसके पास इस चीजकी गुजाइश होती ही नही। इसलिये जो कुछ होता है उसे वह रोकता नही, होने देता है । इसे ही पुराने लोगोने 'प्रवाहपतित कर्म' भी कहा है । इसका अर्थ वही है जो कर्तव्यबुद्धिपूर्वक कर्मका है। असलमे बहुत समयतक यज्ञार्थ या ब्रह्मार्पण बुद्धिसे कर्म करते-करते उस मनुष्यका कुछ स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि बिना किसी खयालके भी वह ऐसे ही काम करता रहता है जिससे लोगोका कल्याण हो । अन- जानमे भी उससे दूसरे प्रकारका कर्म होई नही सकता। उसके जरिये २
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