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३५४ गीता-हृदय कहा है। वर्णन पाता है । इसके बारेमें तरह-तरहकी कल्पनाये होती है। पुराने टीकाकारो और भाष्यकारोने तो प्राय एक ही ढगसे अर्थ किया है। हाँ, शब्दोके अर्थोंसे किन चीजोका अभिप्राय है इसमें कुछ मतभेद उनमें भी पाया जाता है। उनने इन दोनो मार्गोको देवयान और पितृयान (याण) भी कहा है। यान रास्तेको भी कहते है और सवारी या लेचलनेवालेको भी। घोडा, गाडी वगैरह यान कहे जाते है। मगर जो पथदर्शक हो वह भी सवारीसे कम काम नहीं करता। इसलिये उसे भी यान कहते है और वाहक भी। इन मार्गोको अचिरादि मार्ग और धूमादि या धूम्रादि मार्ग पहलेमें अग्निसे ही शुरू करते है । और उसके बाद ही तो ज्योति , अचि या प्रकाश है। इसीलिये उसे अचिरादि कह दिया है। अग्नि ही यद्यपि शुरुमें है और उसके बाद ही ज्योति शब्द और कही-कही अचि शब्द प्राता है, मगर अग्न्यादि मार्ग न कहके अचिरादि इसलिये कहते है कि अग्नि तो दोनोमें है। उसके बाद ही रास्ते बदलते हैं। दूसरेमें धूमसे ही शुरू करनेके कारण धूमादि नाम उसका पडा । इसी धूमको किसी-किसीने धूम्र कहा है । धूम्रके मानी है मलिन या अंधेरेवाला। इस मार्गमें प्रकाश नही होनेसे ही इसे धूम्रादि कह डाला। कुछ नये टीकाकारोने यही कहके सन्तोष कर लिया कि हमे इन श्लोकोका तात्पर्य समझमें नहीं पाता। असलमे पुराणोकी तो बात ही जाने दीजिये। छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदोमें भी जो इन दोनो मार्गोका वर्णन है उसपर भी उन्हें या तो विश्वास नहीं है, या उसे भी वे एक पहेली ही मानके ऐसा कह देते है । वेशक यह चीज पुरानी है। यहाँ तक कि ऋग्वेद (१०८८।१५) में भी इसका जिक्र है । यास्कके निरुक्त (१४१६)मे भी यह बात पाई जाती है। महाभारतके शान्तिपर्वमे तो हई। वेदान्तदर्शनके चौथे पादके दूसरे और तीसरे अधिकरणोमें भी यह वात आई है । इसपर वाद-विवाद भी पाया जाता है । कौषीतकी उपनिषदके पहले अध्यायके शुरूके २, ३