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"सर्व धर्मान्परित्यज्य" ३४७ ? सिंहको अहिंसक होनेकी भी शिक्षा व्यावहारिक मानी जानी चाहिये । शकरके अर्थमे तो यह दिक्कत नहीं है। क्योकि वह तो ज्ञानोत्पत्तिके ही लिये धर्मोका त्याग कुछ समयके लिये जरूरी मानते हैं। वे ज्ञानके वादका त्याग सबके लिये जरूरी नही मानते। मगर जो लोग ऐसा नही मानके धर्म करनेकी बातके साथ ही इन धर्मोके झमेलेसे छुटकारेकी बात बोलते है उनके लिये ही तो अाफत है। और अगर अर्जुन इस प्रकारके धर्मोको छोड ही दे तो फिर वह करेगा कौनसे "स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले कर्म ?" और भी तो देखिये । यदि कुछ इने-गिने धर्मोका ही त्याग करना इस श्लोकमे बताया माना जाय, तो फिर धर्म शब्दके पहले सर्व शब्दकी क्या जरूरत थी ? 'धर्मान्' यह बहुवचन शब्द ही तो काफी है । उन धर्मोको इसीसे समझ ले सकते है । ऐसी हालतमे सर्व कहनेका तो यही मतलव हो सकता है कि कही ऐसा न हो कि बहुवचन धर्म शब्दसे कुछी धर्मोको लेके बस कर दे । इसीलिये सर्वधर्मान् कह दिया। ताकि गिन- गिनके सभी धर्मोको ले लिया जाय । पूर्व मीमासाके कपिजलाधिकरण नामक प्रकरणमे "कपिंजलानालभेत".-"कपिजल पक्षियोको मारे", इस वचनमे बहुवचनके खयालसे तीन ही पक्षियोकी बात मानी गई है । जव तीन पक्षी भी बहुत हई और उतने ही लेनेसे 'कपिंजलान्', बहुवचन सार्थक हो जाता है, तो नाहक ज्यादा पक्षियोका सहार क्यो किया जाय ? यही बात वहाँ मानी गई है। वही यहाँ भी लागू हो सकती थी। इसी- लिये 'सर्व' विशेषण सार्थक हो सकता है। मगर तिलकके अर्थमे तो यह एकदम बेकार है। उनने खुद गीतारहस्यमे शब्दोके अर्थमे जगह- जगह वालकी खाल खीची है और दूसरोको नसीहत की है। मगर यहाँ ? यहाँ तो वही "खुद रा फजीहत, दीगरे रा नसीहत" हो गई। यहा "अन्यहिं राह दिखावही आप अँधेरे जाहि"वाली बात हो गई। -