३४६ गीता-हृदय ही उनका मतलब होगा। जो चीज सामने नही हो, किन्तु परोक्षमें या दूर हो, उसीके सम्बन्धमें यह कहा जा सकता है कि उसकी शरणमें जायो। परन्तु ऐसी चीज-कृष्णका ऐसा परोक्ष स्वरूप-तो केवल वही निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हो सकता है और यही अर्थ शकरने किया भी है। तो फिर इसीलिये शकरपर तिलकके बहुत ज्यादा विगडने और उन्हे खरी- खोटी सुनानेका मौका ही कहाँ रह जाता है ? दूसरी दिक्कत भी सुनिये । धर्म शब्दका इतना सकुचित अर्थ करनेके लिये कारण क्या है ? यदि इस प्रकार अर्थ किया जाने लगे तो क्या यह भद्दी खीच-तान न होगी? जिस खीच-तानका आरोप तिलकने खुद शकरपर बार-बार लगाया है उसके शिकार तो वे इस प्रकार स्वय हो जाते है। इतना ही नही। स्वय गीतारहस्यके ४४० और ८४८ पृष्ठोमें महाभारतके अश्वमेध पर्वके ४६ और शान्तिपर्वके ३५४ अध्यायोका हवाला देके जिन खास-खास धर्मोको गिनाया है और जिनमें "क्षत्रियोका रणागणमें मरण", "ब्राह्मणोका स्वाध्याय", मातृ-पितृसेवा, राजधर्म, गार्हस्थ्य धर्म आदि सभीका समावेश है, उन्हीके त्यागनेकी बात इस श्लोकमे कही गई है ऐसी मान्यता तिलककी है। तो क्या इससे यह समझा जाय कि अर्जुनको युद्ध करनेसे भी उनने रोका है ? गृहस्थ धर्मसे भी उन्हे हटाया है ? माता-पिताकी सेवा और क्षत्रियके धर्म--राजधर्म-से भी उसे उनने रोका है और इन सवोको झझट कहा है ? यह तो अजीव वात होगी। युद्ध करनेका आदेश वार-बार देते है, यहाँतक कि उस श्लोकके पहलेतक उसीपर जोर दिया है, और "चातुर्वर्ण्य मया सृष्ट" (४।१३) तथा "ब्राह्मणक्षत्रियविशा” (१८।४१-४४) में न सिर्फ वर्णों के धर्मोपर ही जोर दिया है, बल्कि उन्हें स्वाभाविक, 'स्वभावज' (natural) कहा है। तो क्या अन्तमें सव किये-करायेपर लीपा-पोती करते है ? और अगर स्वाभाविक धर्मोके छोडनेकी बातका कहना माना जाय तो
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