गीता-हृदय जवतक ये दोनो है-जबतक इन दोनोका जान होनाजनीना इनती हस्ती है, सत्ता है। मगर ऊपर उठते-उठने जब नदिका लोप नोनही ग्राना हो गया तो फिर गमष्टि वृद्धि भी कहा गोंगी, गोगी? दनी- लिये सर्वत्र समरमना, एक रगतामा बान होने लगा। गीता ने ही ब्रह्मज्ञान या परमात्माका ज्ञान कहनी है। उस दगाने जो कुछ पिया जाता है वह यज्ञार्थ होते हुए मा ईश्वगर्ग, ब्रह्मापंग, गदग या मदर्य कर्म कहा जाता है । "मयि नर्वाणि कर्माणि" (3120), "यत्मरोपि" (६।२७), "म्वकर्मणा नाच" (१८१४६), "वेतमा गर्वकामाणि" (१८१५७) आदि गीता के बननोगे यही बात कही गःहै। इनके वारेमे कहा जाता है कि भगवदर्पण युनिगे या भगवानकी प्रगनता लिये कर्म किया जा रहा है। अमनमे प्रात्मा और नमस्न ननार- दोनो ही-जब परमात्मा बन गये और उनके मिवाय नी जुदा स्थिति रही नहीं गई, तब तो जो कुछ होता है उगे भगवदर्पग-पुद्धिपूर्वक ही माना जाना चाहिये । 1 - कर्तव्य कर्म सबके अन्तमें पानी है पांचवी गीढी, जिसे गोतामे मेवन कर्तव्य- बुद्धिपूर्वक या कर्त्तव्य समझके कर्म करना कहते है । जब माग भेद मिट गया और अद्वैतबुद्धि-"एको द्वितीयो नास्ति'को भावना-हो गई और वह निरन्तर बनी रहती है, उसका विलोप कभी भी जव होता नहीं, नो फिर ईश्वरार्थ कर्मका प्रयोजन क्या है-मतलब गया है ब्रह्म या ईश्वर या भगवानके लिये कर्म करनेका तव तो कोई मतलब नती नहीं जाता। भगवान उन कर्मोको लेके ग्राचिर करेगा क्या? उसे तो उनका प्रयोजन कुछ भी रही नहीं गया। इसीलिये भगवदर्पण कर्मके कुछ मानी दरअसल है नहीं। जवतक अद्वैत भावना दृढ न हो और उसमें ?
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