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"सर्व धर्मात्परित्यज्य" ३४१ 17 उचित है । फलत कुछ विस्तृत एव व्यापक रूपमे शास्त्रीय विधि-विधानके अनुसार ही यहाँ धर्म शब्दका अर्थ लिया जाना उचित प्रतीत होता है । दूसरे अध्यायके "स्वधर्ममपि” (२।३१) मे जिस अर्थमे यह प्रयुक्त हुआ है, या खुद अर्जुनने ही “धर्मसमूढचेता (२।७), "कुलधर्मा सनातना (१४०) आदि वचनोमे जिस सकुचित अर्थमे इसे कहा है यहाँ भी वही अर्थ या उसीसे मिलता-जुलता ही मान लेना ठीक है। छान्दोग्योपनिषद्म "एकमेवाद्वितीयम्' (६।२।१)मे ब्रह्मको एक कहा भी है। इसीलिये शकरने अपने गीताभाष्यमे धर्मशास्त्रीय वन्धनोको छोडके और उनमे लिखे धर्मों-अधर्मोसे पल्ला छुड़ाके 'अह ब्रह्मास्मि'-'मै खुद ब्रह्म ही हूँ' इसी अद्वैतज्ञाननिष्ठाके प्राप्त करनेका प्रतिपादन इस श्लोकमे माना है । हम तो पहले अच्छी तरह बता चुके है कि बिना शास्त्रीय- धर्मोको छोडे या उनका सन्यास किये ज्ञाननिष्ठा गैरमुमकिन है । उसी जगह इस श्लोकका भी उल्लेख हमने किया है । यह भी बताई चुके है कि अठारहवे अध्यायके शुरूमे जिस सन्यास और त्यागकी असलियत और हकीकत जाननेके लिये अर्जुनने सवाल किया है वह सन्यास इसी श्लोकमे स्पष्ट रूपसे बताया गया है। इससे पहले ४६वे श्लोकमे सिर्फ उसका उल्लेख आया है। उससे पहले तो त्यागकी ही बातको लेके बहुत कुछ कहा गया है। इसी श्लोकमे जो परित्यज्य' शब्द आया है और जिसका अर्थ है 'परित्याग करके या छोडके', उससे ही साफ हो जाता है कि अद्वि- तीय या जीवसे अभिन्न ब्रह्मकी शरण जाने और उसका ज्ञान प्राप्त करनेके पहले धर्मोको कतई छोड देना पडेगा। क्योकि “समान कर्तृकयो पूर्व- काले क्त्वा" (३।४।२१) इस पाणिनीय सूत्रके अनुसार पहले किये गयेके मानीमे ही 'क्त्वा' और 'ल्यप्' प्रत्यय हुआ करते है। परित्यागमे त्यागके अलावे जो 'परि' शब्द है वह यही बताने के लिये है कि धर्म-अधर्मके झमेलेसे अपना पिंड कतई छुडा लेना होगा। विपरीत इसके अगर धर्मका अर्थ